कविताएं

बीता साल गुजारा हमने

बीता साल गुजारा हमने

पत्नी को मनाने में

चप्पल-जूते घिस गए हमारे

ससुराल आने-जाने में।

बीता साल गुजारा हमने

स्कूल से फरलो लगाने में

रजिस्टर में ऑन ड्यूटी भरकर

पहुंच जाते

मयखाने में

छात्रों को साल भर

कुछ न पढ़ाया

हमको जरा तरस नहीं आया

आई सालाना परीक्षाएं

सिर पर तो

हमने गुरु-शिष्य का रिश्ता

खूब निभाया

जी भरकर नकल करवाई

छात्रों का बेड़ा पार लगाया।

हमारी इस कामयाबी पर

स्कूल प्रबंधन समिति ने एक

जश्न मनाया

सम्मानित किया गया हमको

आदर्श शिक्षक का हमने खिताब पाया।

बीता साल गुजारा हमने

बड़ा लेखक बन जाने में

बिन सोचे समझे हमने

लिख डाली ढेरों रचनाएं

भेज दिया उन सबको हमने,

बड़े-बड़े अखबारों में

खेद सहित

जब रचनाएं वापस आई,

उतर गया भूत,

बड़ा लेखक बन जाने का।

बीता साल गुजारा हमने

पत्नी की तन्हाई में

प्यार के मीठे दो बोलों को

तरस गए अपनी ही लुगाई से।

‘औरत की व्यथा’

वर्षों हो गए हैं मुझे

इस घर में आए हुए

परंतु तुमसे आज तक

पत्नी का दर्जा नहीं

ले पाई हूं।

तुम कमरे में आते हो

सिर्फ देह को भोगने

के लिए, और मैं भी

सौंप देती हूं तुमको अपना तन

ताकि किसी हवसी की तरह

तुम भी मिटा लो अपनी

वासना की भूख।

औरत के जज्बातों, अरमानों की

तुमने कभी कद्र नहीं जानी

इसलिए तुम क्या जानो कि एक

औरत के मन में भी दया, ममता

का अथाह सागर होता है,

वो भी किसी की बेटी, बहन या

मां होती है।

ढलती उम्र के पड़ाव में जब

तुम, थक कर निढाल

होकर अपने बीते हुए

कल का जिक्र करोगे

तो वह संभाल लेगी तुम्हें

परंतु मन से नहीं सिर्फ देह से।

कभी उसने भी सजाए थे

आंखों में भी सतरंगी सपने

जो हर लड़की देखा करती है

पीहर से ससुराल जाते वक्त।

परंतु तुमने तो अपनी मर्यादाओं

का बंधन तोड़कर, अपने सुख

की खातिर किसी और की वाहों में

जाकर लुटाते रहे अपना प्यार व पैसा

परंतु औरत की व्यथा को तुम न समझे पाए कभी।

— प्रदीप गुप्ता, मकान नं. 193/1 सुशीला स्मृति , निवास डियारा सेक्टर, बिलासपुर