तपती धरती का दर्द

( डा. लाखा राम लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं )

‘ग्लोबल वार्मिंग’ से तात्पर्य पृथ्वी के पर्यावरण के तापमान में लगातार बढ़ोतरी से है। हमारी धरती माता सूर्य की किरणों से उष्मा प्राप्त करती है। गौरतलब है कि मनुष्यों, प्राणियों और पौधों को जीवित रहने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोतरी होने पर यह आवरण और भी सघन हो जाता है। ऐसे में यह आवरण सूर्य की अधिक किरणों को रोकने लगता है और फिर यहीं से शुरू हो जाते हैं ‘ग्लोबल वर्मिंग के दुष्प्रभाव।’ मनुष्य जनित गतिविधियों के कारण कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रोजन ऑक्साइड इत्यादि ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि देखने को मिल रही है। विश्व जितनी तेजी से ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में आ रहा है, उसका असर भारत पर भी उतनी ही तेजी से पड़ रहा है। यहां तक ग्लोबल वार्मिंग के चलते उत्तर भारत और दक्षिण भारत की जलवायु के बीच भी एक बड़ा अंतर देखने को मिलता है। यह बढ़ते तापमान का ही नतीजा है कि एक ही समय में भारत के किसी हिस्से को सूखे, तो किसी को बाढ़ की मार झेलनी पड़ती रही है। अगर इसी तेजी से धरती का तापमान बढ़ता रहा तो आने वाले कुछ सालों में मनुष्य के लिए धरती पर रहना ही नामुमकिन हो जाएगा। यदि विश्व के सभी देश ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं करते, तो 21वीं शताब्दी के अंत तक जो परिस्थितियां संभावित होंगी, वे इस प्रकार हैं-जनसंख्या और आर्थिक वृद्धि के आधार पर तापमान 1 से 3.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा, समुद्र तल 15.90 सेंटीमीटर ऊंचा हो जाएगा, जिससे नौ करोड़ लोगों को बाढ़ का भय होगा। कुछ क्षेत्रों की झीलें और जल धाराएं सूख सकती हैं। पृथ्वी पर हिमाच्छादित क्षेत्र का संकुचन पृथ्वी पर तापमान में हो रही वृद्धि का एक प्रमाण है। पर्यावरणविदों का कहना है कि मानव खुद अपने कर्मों से अपना विनाश कर रहा है। इनका इशारा प्रकृति से छेड़छाड़ और ग्लोबल वार्मिंग की ओर है। जब पेड़ कटेंगे और पर्यावरण से खिलवाड़ होगा, तो ग्लेशियर पिघलेंगे ही। लगातार पड़ती गर्मी के कारण पृथ्वी की सतह से वनस्पति कम हो रही है और ग्लेशियर पिघलने से समुद्री जल स्तर बढ़ रहा है। औद्योगिकीकरण की बाढ़ से वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा 30 प्रतिशत, मीथेन 100 प्रतिशत, नाइट्रस ऑक्साइड 15 प्रतिशत बढ़ी है। भूमि की उर्वरता में कमी से खाद्य संकट भी आएगा। ग्लेशियर पिघलने से पानी का संकट भी आएगा। अब समय आ चुका है कि तमाम सरकारें, ऊर्जा क्षेत्र और व्यापार जगत ग्लोबल वार्मिंग को लेकर गंभीर हो जाएं और इससे पैदा होने वाले खतरों से निपटने में अपनी भूमिका को समझें। जब तक व्यवहार और कार्यशैली में बदलाव नहीं आएगा, ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बढ़ती ही जाएगी। हम कालिदास बनकर जीवनदायिनी प्रकृति का विनाश कर रहे हैं, अब पर्यावरण प्रदूषण रूपी राक्षस से लड़ने का समय आ गया है। सब कुछ जानते हुए भी इस भयावह स्थिति से निपटने के लिए कुछ होता क्यों नहीं दिखता? कारण है राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी। ईश्वर ने हमें यह धरती उधार दी है। यह धरती जितनी हमारी है उतनी ही उनकी भी है, जो हमारे बाद इस धरती पर आने वाले हैं। हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम अपने कृत्यों द्वारा आने वाली पीढि़यों को इसके उपकारों से वंचित न होने दें। अगर ग्लोबल वार्मिंग को रोकना है और कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर को नीचे लाना है तो इसके उत्सर्जन को कम से कम 50 प्रतिशत घटाना होगा, लेकिन यह मुश्किल कार्य है। संयुक्त राज्य अमरीका जो सबसे ज्यादा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित करता है, ने क्योटो प्रोटोकाल मानने से इनकार कर दिया है। आदर्श स्थिति तो वह होगी, जिसमें सभी कारखानों, भवनों, घरों, वाहनों के प्रदूषण रहित गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत उपयोग हों। यह बात हवा में किले बनाने जैसी प्रतीत हो सकती है, लेकिन एक न एक दिन सच्ची होगी। अंततः यह कहा जा सकता है कि ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के मुद्दे पर वैश्विक समझौता होने का इंतजार करने के नाम पर हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहना न तो उचित है और न ही विवेक सम्मत।