नदियों को अविरल बहने दें

( वीरेंद्र पैन्यूली लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं )

आज विश्व में नदियों के अविरल प्रवाह की बात, धार्मिक कारणों से ही नहीं, वैज्ञानिक व पर्यावरणीय कारणों से भी की जा रही है। कई बने बांधों को तोड़ने की भी योजनाएं बनाई जा रही हैं। कुछ देशों में बांधों को एक निश्चित समय का आयु प्रमाण पत्र दिए जाने का भी प्रावधान है। इस काल तक उनको उपयोगी व जोखिम रहित माना जाता है। उदाहरण के लिए अमरीका में अकसर ऐसे प्रमाण पत्र 50-60 वर्षों में दिए गए हैं। अतः उनके तोड़ने या जारी रखने की भी प्रक्रिया पर विचार किया जाना जरूरी होता है…

कुछ समय पूर्व कनार्टक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी के पानी को छोड़े जाने को लेकर बेहद उग्र वातावरण बना हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय भी अपने आदेशों को लागू करवाने में मुश्किलों का सामना कर रहा था। लगभग उसी समय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री से बिहार की तत्कालीन भयंकर बाढ़ की स्थिति पर बिना लाग लपेट के सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया था कि बंगाल में गंगा पर बना फरक्का बांध अपने पीछे जो मलबा व गाद जमा करता जा रहा है, उसके कारण साधारण बरसात होने पर भी उथली गंगा अपने किनारों के आसपास फैल कर उनके राज्य में तबाही मचा देती है। बैराजों एवं बांधों से जगह-जगह बंधी नदियों में कई बार इतना पानी नहीं रहता, जो मलबा/गाद को आगे धकेल सके। नीतीश का दो टूक कहना था कि बिना अविरल गंगा के निर्मल गंगा और नमामि गंगे जैसे लक्ष्य पाना असंभव होगा। पर्याप्त पानी न रहने से व प्रवाह की गति में कमी से नदियों की अपने को स्वतः साफ रखने की क्षमता में भी कमी आती है। यह एक तरह से नदियों और उन पर बने बांधों के कारण उपजी समस्याओं के समाचार भी थे। समाचारों की सुर्खियां बाधित नदियों के पानी के बहाव, उनकी अविरलता के मुद्दे को गंभीरता से समझने की सामयिकता व अनिवार्यता का आह्वान भी थीं। परंतु तब बात आई-गई कर दी गई थी। इसके बाद पंजाब सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की उपेक्षा करती हुई सतलुज-यमुना लिंक नहर पर पड़ोसी राज्यों के साथ जो व्यवहार किया, उस कारण भी आज नदियों की ज्यादा से ज्यादा अविरलता के लाभों को समग्रता में समझने की जरूरत आन पड़ी है। हरियाणा व पंजाब में भी नहरों में पानी छोड़ने से संबंधित आदेश की अवहेलना के मामले को लेकर तलवारें खिंचती रही हैं। दूसरी तरफ हरियाणा व दिल्ली भी बंधे पानी को दिल्ली के लिए छोड़े जाने को लेकर टकराव में रहते हैं। आगरा और मथुरा पानी रहित यमुना के नाले बनने से चिंतित हैं। वे वहां यमुना में और पानी पहुंचाने के लिए आंदोलन भी करते रहते हैं।

हालांकि सुर्खियों में अकसर केवल गंगा को अविरल बनाने का ही मामला आता है। नीतीश के दो टूक बयान के पहले गंगा या अन्य नदियों पर बने अवरोधों से पर्याप्त पानी छोड़ने जाने का मामला अधिकांशतः कुंभ आदि बड़े स्नान या पर्वों के समय संत समाज की ओर से धर्मनगरियों या तीर्थ पुरोहितों द्वारा ही उठाए जाने वाला मामला माना जाता रहा है। जो लोग विज्ञान सम्मत या पर्यावरण सम्मत गंगा अविरलता की बात भी करते थे, उन्हें विकास विरोधी करार दिया जाता रहा है। धार्मिक भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए ऐसे-ऐसे सुझाव भी दिए गए कि बांधों के किनाने से नदियों की एक सीधी धार छोड़ दी जाएगी, परंतु यह पारिस्थितिकीय आवश्कताओं को कहां तक पूरा सकती है? अपने देश में भी नदियों पर बने बांधों व बैराजों को लेकर अंतरराज्यीय या अंतरराष्ट्रीय अनुभव यही दिखाते हैं कि बांध, बैराज बनाकर हम पानी रोकें तो सब ठीक। दूसरा रोके तो धमकी, कड़वाहट, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों में मामले को घसीटने का सिलसिला शुरू हो जाता है और इसे राजनीतिक भी बना दिया जाता है। उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश का मामला तो अनोखा है, परंतु गनीमत है कि अभी इस पर कोई बड़ी लड़ाई नहीं चली है। उत्तराखंड में गंगा व अन्य नदियों पर बने बैराजों से कब कितना पानी छोड़ा जाएगा या कब बिलकुल रोक दिया जाएगा, यह उत्तर प्रदेश सरकार तय करती है। हम हरिद्वार में जिस गंगा को हर की पैड़ी या अन्य घाटों में देखते हैं, उसकी हकीकत तब मालूम चलती है, जब वार्षिक बंदी के क्रम में उत्तर प्रदेश सरकार बैराजों से हरिद्वार के घाटों पर पानी का पहुंचना रोक देती है और जगह-जगह पवित्र घाटों में जो कुछ पहुंचता है, वह दर्जनों गंदे नालों का जल-मल होता है, परंतु बात यहीं पर नहीं रुकती। अब भागीरथी पर बने टिहरी बांध, श्रीनगर में बने श्रीनगर बांध व कोटेश्वर बांध की वजह से बरसात के मौसम को छोड़ दें, तो आए दिन ऋषिकेश के पास लक्ष्मणझूला के स्वर्ग आश्रम के सामने कभी भी ऐसी स्थितियां बन जाती हैं कि गंगा में पानी इतना कम हो जाता है कि नावों का चलना रोक दिया जाता है। नदियों पर बने बांध व बैराजों से मनमाने ढंग से पानी छोड़े जाने से पूरे देश में कई हादसे हुए हैं।

कानपुर या अन्यत्र भी गंगा के प्रदूषण को कम करने के लिए, उसको बहाने के लिए भी गंगा में पर्याप्त मात्रा में गतिमान साफ जल की आवश्यकता है। गंगा या अन्य नदियों में पानी को शुद्ध रखने में मछली व अन्य जलचरों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। साथ ही यह भी निर्विवाद है कि नदी में बड़े या छोटे बांधों के बने अवरोधों से मछलियों के प्रजनन, संख्या, आयु व झुंडों पर असर पड़ता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली व बंगाल के अध्ययन ही नहीं, बल्कि खुद उत्तराखंड में हुए अध्ययन भी इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं। गंगा में पर्याप्त पानी न होने के कारण बड़े स्टीमरों, नौकाओं व जहाजों के तटों तक आने, परिचालन व नौका परिवहन पर भी असर पड़ रहा है। बांग्लादेश को भी भारत से इन्हीं संदर्भों में शिकायत है। वैज्ञानिकों का कहना कि यदि उत्तराखंड से ही मैदानों की ओर बहने वाले गंगा के पानी को मैदानों तक पहुंचने में बहुत सीमित कर दिया जाएगा तो गंगा नाम के लिए तो गंगा रहेगी, उसमें एक चौथाई से भी कम मूल गंगा का पानी मिला होगा। आज विश्व में नदियों के अविरल प्रवाह की बात, धार्मिक कारणों से ही नहीं, वैज्ञानिक व पर्यावरणीय कारणों से भी की जा रही है। कई बने बांधों को तोड़ने की भी योजनाएं बनाई जा रही हैं। कुछ देशों में बांधों को एक निश्चित समय का आयु प्रमाण पत्र दिए जाने का भी प्रावधान है। इस काल तक उनको उपयोगी व जोखिम रहित माना जाता है। उदाहरण के लिए अमरीका में अकसर ऐसे प्रमाण पत्र 50-60 वर्षों में दिए गए हैं। अतः उनके तोड़ने या जारी रखने की भी प्रक्रिया पर विचार किया जाना जरूरी होता है। अपने देश के उदाहरण से भी इस बात को समझें। टिहरी बांध की आयु का विवाद चर्चा में रहा। जहां बांध विरोधी इसकी उपयोगी आयु पचास साल से ज्यादा न होने की आशंका शुरू से ही जताते रहे हैं, वहीं बांध समर्थक इसे सौ साल का होने का दावा करते हैं। सौ साल या उससे ज्यादा भी मानें तो इसके बाद क्या होगा? डूबी हुई घाटियां या डूबा हुआ गणेशप्रयाग तो नहीं लौटेगा। अब वैज्ञानिक व इंजीनियरिंग देख-रेख में बांधों को नष्ट कर नदियों के अविरल बहाव को बनाने के काम भी शुरू हुए हैं। अमरीका में इस तरह के कई बांधों के अवरोध हटाया जाना अब सामान्य होता जा रहा है। वर्ष 2012 में अमरीका में इलवाह नदी जलागम पर बने बांध को हटाने का निर्णय भी काफी चर्चा में रहा। अधिकांश लोगों का मत है कि बांध को बनाए रखने से ज्यादा लाभ बांध को तोड़ने में है। वर्ष 2013 में भारत में भी एक संगठन ने टिकरी बांध को नियंत्रित तरीके से तोड़ने का सुझाव दिया था। ऐसा नहीं है कि गंगा का अस्मिता की लड़ाई आज ही शुरू हो रही है। यह लड़ाई सन् 1837 में हरिद्वार में गंगा को पहली बार बांधने के प्रयासों के समय ही शुरू हो गई थी।