बजट काला धन के खिलाफ!

यूपीए सरकार के दौरान जब बसपा प्रमुख मायावती के दिल्ली आवास पर आयकर वालों ने छापा मारा था, तो कुछ लोग वहां मौजूद थे, जो 20,000 रुपए से कम राशि की पर्चियां काट रहे थे। चंदा देने वालों के नाम और राशि सब कुछ फर्जी थे। उसके बाद मायावती और उनके साथी नेताओं ने दलीलें देना शुरू कर दिया कि बसपा को 20,000 रुपए या उससे ज्यादा का चंदा देने वाले लोग बेहद कम हैं। उसके बाद एक शोधरपट सामने आई कि राजनीतिक दलों के करीब 70 फीसदी चंदे के स्रोत अज्ञात हैं। यानी पता ही नहीं है कि चंदा किसने दिया ! कांग्रेस और भाजपा का ऐसा चंदा 80 फीसदी या ज्यादा है। अब मोदी सरकार के चौथे बजट में घोषणा की गई है कि चंदा 2000 रुपए तक ही नकदी लिया जा सकेगा। उससे ज्यादा की राशि चेक, ऑनलाइन, डिजिटल माध्यम से ही लेनी पड़ेगी। इससे अधिक चंदे का हिसाब देना होगा। राजनीतिक दलों को आयकर रिटर्न भी नियमित तौर पर भरनी होगी। पहले राजनीतिक चंदे की नकदी सीमा 20,000 रुपए थी। बसपा की दलीलें याद कीजिए। पारदर्शिता चुनाव आयोग भी चाहता था और मोदी सरकार की भी यही इच्छा थी कि राजनीतिक चंदे की पारदर्शिता के साथ-साथ जवाबदेही भी हो। अब सरकार की दलील है कि इससे भ्रष्टाचारमुक्त भारत बनाने की ओर एक कदम बढ़ाया जा सकेगा। सवाल हो सकता है कि क्या 2000 रुपए की अधिकतम नकदी सीमा तय करने से, राजनीतिक दलों में, काला धन या बेनामी राशि का प्रवेश रोका जा सकेगा? लेकिन बजट में राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून की परिधि में लाने का प्रावधान क्यों नहीं किया गया? इसके न होने से पारदर्शिता बाधित होती है। दूसरा संदर्भ किफायती घर का है। रियल एस्टेट का जिक्र आते ही काले धन की याद भी आने लगती है। अभी तक आम धारणा रही है कि मकान, बिल्डरों की परियोजनाओं में भ्रष्ट, आर्थिक अपराधियों और नेताओं, नौकरशाहों, अन्य धन्नासेठों की जमात का काला धन लगा हुआ है। दिल्ली, नोएडा, गुड़गांव, मुंबई या देश में जो हजारों फ्लैट खाली पड़े हैं, उनमें ऐसा ही ‘भ्रष्ट पैसा’ लगा हो सकता है। लेकिन बजट में किफायती घर को भी बुनियादी ढांचे के दायरे में रखा गया है। किफायती घर की परिभाषा क्या है और बिल्डर उसे किन शर्तों पर मुहैया कराएंगे? रियल एस्टेट क्षेत्र ने बुनियादी ढांचे वाले प्रावधान का स्वागत किया है। बीते एक दशक से यह उनकी मांग भी थी। यदि यह जमीनी स्तर पर लागू होता है और रियल एस्टेट को फंडिंग मिलने के कई और स्रोत खुलते हैं, तो यह उद्योग राहत की सांस लेगा और ग्राहक, निवेशक भी लाभान्वित होंगे। दलील दी जा रही है कि एक नई क्रांति की शुरुआत होगी। क्या प्रधानमंत्री की 29,000 करोड़ रुपए से ज्यादा की आवास योजना का सपना साकार होगा? लेकिन बजट में ऐसी घोषणाओं से पहले रोजगार की प्रचंड समस्या को संबोधित नहीं किया गया है। यदि बीते सालों की तुलना में रोजगार के अवसर घट रहे हैं, तो आमदनी कहां से आएगी? मकान के लिए बैंक कर्ज किस आधार पर मिलेगा? एक बेरोजगार नागरिक घर की कल्पना भी कैसे कर सकता है? यदि बेरोजगारी की समस्या का समाधान नहीं होता है, तो 2019 तक एक करोड़ लोग गरीबी की रेखा से ऊपर कैसे लाए जा सकेंगे? और 2025 तक गरीबी के समूल समापन का संकल्प कैसे पूरा किया जा सकेगा? बजट में इन दो प्रावधानों को खूब महत्त्व दिया गया है, लेकिन काले धन का क्या होगा? जब तक काले धन के ‘मगरमच्छ’ पकड़े नहीं जाएंगे, वे चेहरे बेनकाब नहीं किए जाएंगे, तब तक बजट के दोनों प्रावधान बेमानी साबित होंगे। कई बड़े उद्योगपतियों और अर्थशास्त्रियों का मानना है कि काले धन को समाप्त करने की कोई गंभीर पहल नहीं की गई है। काला धन मोदी सरकार के लिए बुनियादी मुद्दा है, जिससे नोटबंदी के बाद राजनीतिक चंदे और किफायती घर के मुद्दे जुड़े हैं। बजट में बैंक से नकदी निकासी की अधिकतम सीमा भी तय कर दी गई है, ताकि काले धन पर निगाह बनी रहे। अब मोदी सरकार इस संदर्भ में क्या करेगी, यह साफ करना जरूरी है, क्योंकि बजट के अधिकतर प्रावधान ऐसे हैं मानो एक ‘मुनीम’ ने बजट तैयार किया हो! उसका विश्लेषण बाद में करेंगे, फिलहाल काले धन पर सरकारी नीति का इंतजार है।