बारूद के पैरोकारों से शांति की आशा

( भारत डोगरा लेखक, पर्यावरणीय मामलों के जानकार हैं )

संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों को बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए गए हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे विश्व शांति के प्रति विशेष जिम्मेदारी का परिचय देंगे, पर कड़वी सच्चाई तो यह है कि ये पांच देश-अमरीका, रूस, चीन, ब्रिटेन व फ्रांस विश्व के सबसे बड़े हथियार निर्यातक हैं। हाल के आंकड़ों के अनुसार इन पांचों देशों ने मिलकर कुल 88 प्रतिशत हथियार निर्यात किए। कुल हथियारों के आयात का 67 प्रतिशत हिस्सा एशिया, मध्य पूर्व, लातिन अमरीका व अफ्रीका में पहुंचा। इनमें से अनेक देश निर्धन देश हैं…

विश्व में अमन-शांति को आगे बढ़ाना सदा एक बड़ी जरूरत रही है, पर हाल के वर्षों में यह कुछ कारणों से और भी जरूरी हो गया है। पहली बात तो यह है कि तमाम विशेषज्ञों की राय में आगामी वर्षों में जलवायु बदलाव जैसी पर्यावरणीय चुनौतियां सबसे बड़े संकट के रूप में उपस्थित होने वाली हैं। इनका सामना करने के लिए जरूरी है कि सभी देश, विशेषकर विश्व की बड़ी ताकतें इन समस्याओं को सबसे महत्त्वपूर्ण प्राथमिकता मानकर इन पर आपसी सहयोग से कार्य करें। पर जब तक दुनिया में विभिन्न देशों के आपसी तनाव, युद्ध, युद्ध की संभावना व हथियारों की दौड़ हावी रहेगी, तब तक इन महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा सकेगा।

दूसरा मुद्दा यह है कि विश्व के हथियारों के भंडार में जमा शस्त्र निरंतर अधिक विध्वंसक होते जा रहे हैं। हिरोशिमा व नागासाकी में दो परमाणु बमों से कितनी तबाही हुई थी, हम सब जानते हैं। आज इससे 10,000 गुना से अधिक विध्वंसक शक्ति के परमाणु हथियार विश्व के हथियार-भंडारों में मौजूद हैं। इसके साथ अधिक उपयोग की संभावना वाले टेक्निकल परमाणु हथियार बनाए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त क्षरित यूरेनियम या डीप्लीटिड यूरेनियम के हथियारों का उपयोग बहुत बड़े पैमाने पर इराक में अमरीकी सेना पहले ही कर चुकी है। रासायनिक व जैविक हथियारों पर बेशक प्रतिबंध लगा हुआ है, पर गुपचुप इसका भंडार कोई भी सरकार व आतंकवादी संगठन बना सकते हैं। यह स्थिति निश्चित तौर पर मानवता की भावी चिंताओं को बढ़ा रही है। आतंकवादी संगठन परमाणु हथियारों को भी नियंत्रण में ले सकते हैं। इन महाविनाशक हथियारों को रहने भी दें, तो भी क्लस्टर बमों जैसे कई हथियारों के कारण मानव जीवन की क्षति की संभावना पहले वाले युद्ध की अपेक्षा अब कहीं अधिक बढ़ गई है।

यह भी स्पष्ट है कि इतिहास के पहले के किसी भी अन्य दौर की अपेक्षा युद्ध, गृह-युद्ध, आतंकवादी हमले व ऐसी अन्य तरह की व्यापक हिंसा के कारण मानव जीवन, अन्य जीवन व पर्यावरण की क्षति की संभावना अब पहले से कई गुना बढ़ गई है। युद्ध, युद्ध की तैयारी, उससे जुड़ा हथियारों का संग्रह व उत्पादन, यह सब ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का एक बहुत बड़ा स्रोत भी बन गए हैं। हाल के वर्षों में हमारे देखते-देखते ही इराक, सीरिया, यमन, युगोस्लाविया, अफगानिस्तान जैसे कई देश युद्ध से बहुत बुरी तरह तबाह हो गए। इन सभी देशों की तबाही में महाशक्तियों की बड़ी भूमिका रही। दो पड़ोसी देशों की आपसी हिंसा से कितनी तबाही हो सकती है व दस लाख से भी अधिक मौतें हो सकती हैं, यह इराक-ईरान युद्ध के उदाहरण से पता चला। गृह युद्ध से तो चंद महीने में ही इससे भी अधिक मौतें हो सकती हैं, यह बांग्लादेश में वर्ष 1970-71 में पता चला था। अफ्रीका में रवांडा, कांगो, नाइजीरिया, अल्जीरिया, सूडान व दक्षिण सूडान के अनुभवों से स्पष्ट हो चुका है कि युद्ध व गृह युद्ध की चपेट में आने वाले देश थोड़े से समय में ही कितनी बुरी तरह तबाह हो सकते हैं व लाखों लोग मर सकते हैं। वियतनाम व कोरिया के युद्धों में जहां महाशक्तियों की प्रत्यक्ष भूमिका थी, तो इंडोनेशिया में राष्ट्रपति सुकार्णो को सत्ता से हटाने के समय जिस तरह कट्टरपंथियों ने सेना से मिलकर लाखों वामपंथियों को मार दिया, उसने नाजी के दर्दनाक संहार की याद दिला दी। इस तरह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद चाहे कोई विश्व युद्ध न हुआ हो, पर एक के बाद एक कितने ही देश युद्ध, गृह युद्ध से तबाह होते चले गए हैं।

इतना ही नहीं, महाशक्तियों के आपसी तनाव भी शीत युद्ध के समाप्त होने के बाद एक बार फिर नए सिरे से बढ़ रहे हैं। एक ओर नाटो है तो दूसरी ओर रूस। इस स्थिति में रूस की एक ओर चीन, तो दूसरी ओर ईरान से निकटता बढ़ी है। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों को बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए गए हैं व उनसे उम्मीद की जाती है कि वे विश्व शांति के प्रति विशेष जिम्मेदारी का परिचय देंगे, पर कड़वी सच्चाई तो यह है कि ये पांच देश-अमरीका, रूस, चीन, ब्रिटेन व फ्रांस विश्व के सबसे बड़े हथियार निर्यातक हैं। हाल के आंकड़ों के अनुसार इन पांचों देशों ने मिलकर कुल 88 प्रतिशत हथियार निर्यात किए। कुल हथियारों के आयात का 67 प्रतिशत हिस्सा एशिया, मध्य पूर्व, लातिन अमरीका व अफ्रीका में पहुंचा। इनमें से अनेक देश निर्धन देश हैं। 125 देशों के सैन्य खर्च के सर्वेक्षण से पता चला कि इससे आर्थिक-सामाजिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ा। जब दो या अधिक पड़ोसी देश हथियारों की दौड़ में उलझ जाते हैं तो यह समस्या और विकट हो जाती है। इन स्थितियों में यह बहुत जरूरी हो गया है कि विश्व स्तर पर एक अमन शांति की एक बड़ी जनशक्ति तैयार हो। विभिन्न देशों में इन अमन-शांति के जनआंदोलनों में आपसी समन्वय होना चाहिए, ताकि वे विश्व स्तर पर शांति की एक बड़ी आवाज बन सकें, उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ से भी मान्यता मिलनी चाहिए व अमन-शांति की स्थापना से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर उनकी मांगों को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पर्याप्त महत्त्व दिया जाना चाहिए। इस अमन आंदोलन का एक बड़ा उद्देश्य यह होना चाहिए कि एक समयबद्ध कार्यक्रम द्वारा धरती से परमाणु हथियारों सहित सभी महाविनाशक हथियारों को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए। आज जबकि यह हथियारों का जखीरा मानवता के लिए संकट बनता जा रहा है, विश्व भी के धर्मगुरु अमन-शांति स्थापित करने की दिशा में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

आतंकवादी हिंसा व आतंकवादी संगठनों को समाप्त करना भी इस आंदोलन का एक मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। जमीनी स्तर पर मजबूत बनने के लिए इस शांति आंदोलन को सभी तरह की हिंसा और अपराधों को कम करने से जुड़ना चाहिए। घरेलू हिंसा व तरह-तरह के हिंसक अपराध भी दुख-दर्द का एक बड़ा कारण है। इनके बुनियादी कारणों को दूर करने के लिए बहुत से प्रयास जनसंगठनों के स्तर पर भी करने जरूरी हैं। इस तरह के प्रयासों से आम लोगों के बीच अमन शांति का आंदोलन मजबूत हो सकेगा और विश्व स्तर पर भी एक बड़ी आवाज बनने की उनकी क्षमता कुछ वर्षों में विकसित हो सकेगी। ग्रासरूट पर लोगों का समर्थन मिलने से हमारी सरकारें व राजनीतिक दल भी अमन-शांति के आंदोलन को समुचित मदद देंगे।