भंसाली की उल्टी स्क्रीन

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

आम जनता की नजर से इन स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों को गिराने के लिए अंततः सिनेमा का सहारा लिया गया। सिनेमा की पहुंच दूर-दूर तक है और प्रत्यक्ष दिखाई गई चीज का आम जनता पर गहरा असर होता है। संजय लीला भंसाली सिनेमा जगत की उसी मंडली का हिस्सा है, जिन्हें भारत के जन नायकों को किसी भी तरह खलनायक सिद्ध करना है। लीला भंसाली की फिल्म में पद्मावती अल्लाउद्दीन खिलजी की प्रेमिका ही हो सकती थी। अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर करने वाली वीरांगना नहीं…

पिछले दिनों दो ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनकी निंदा किया जाना जरूरी है। 19 जनवरी को केरल के कन्नूर जिला में वहां के मुख्यमंत्री विजय के चुनाव क्षेत्र में कुछ लोगों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता संतोष के घर में घुस कर उसकी हत्या कर दी। कहा जाता है कि हत्या करने वाले लोग सीपीएम से ताल्लुक रखते थे। यह अलग बात है कि सीपीएम ने अपनी शमूलियत से इनकार किया, परंतु उनके इनकार की मान्यता केरल में उतनी ही है, जितनी विजय माल्या का यह कह देना कि उसने बैंकों से कर्ज लिया ही नहीं। उसके कुछ दिन बाद 27 जनवरी को संजय लीला भंसाली के साथ राजस्थान की राजधानी जयपुर में कुछ लोगों ने दुर्व्यवहार किया। ये लोग राजपूत समुदाय से संबंध रखने वाले थे। राजपूत समुदाय ने इस बात को स्वीकार किया कि उन्होंने भंसाली के साथ मारपीट की थी। लीला भंसाली फिल्में बनाने का काम करते हैं। इसलिए देश के सिनेमा जगत में उनका नाम जाना-पहचाना है। स्वाभाविक था कि उनके साथ किए गए इस दुर्व्यवहार से सिनेमा जगत के लोगों को दुख होता। सिनेमा से जुड़े बहुत से लोगों ने भंसाली के साथ हुए इस कांड की निंदा भी की। सिनेमा जगत से इतर भी कुछ लोग भंसाली के समर्थन में आए। कुछ बुद्धिजीवी किस्म के लोगों को तो भंसाली के साथ हुए व्यवहार से यह भी शक होने लगा कि देश में अब लोकतंत्र समाप्त होने के कगार पर पहुंच गया है। लेकिन आश्चर्य की बात यह कि भंसाली के कपड़े फाड़े जाने पर ही कुछ लोग अपना गला फाड़ने लगे और संतोष कुमार की हत्या पर भी यही लोग खतरनाक मौन धारण कर गए। केरल में जो संतोष कुमार के साथ हुआ वह भी गलत है और उसके कुछ दिन बाद राजस्थान में जो भंसाली के साथ हुआ, वह भी गलत है।

संतोष कुमार का दोष तो मात्र इतना ही था कि वह कन्नूर जिला का रहने वाला था और सीपीएम के साथ नहीं था। केरल में कन्नूर जिला सीपीएम का गढ़ माना जाता है। सीपीएम का मानना है कि इस जिला में वही रह सकता है जो हमारे साथ हो। इस जिला में उन्हीं की शर्तों पर रहना होगा। संतोष कुमार को यह मंजूर नहीं था और उसको इसकी कीमत अपने प्राण देकर चुकानी पड़ी। यह मामला कुछ-कुछ कश्मीर घाटी जैसा ही है। घाटी में मुसलमान बहुसंख्यक हैं। इसलिए उनकी कुछ तंजीमों ने स्पष्ट कर दिया कि यदि यहां हिंदू-सिखों को रहना है, तो हमारी शर्तों पर रहना होगा। वे नहीं माने और लगभग चार लाख हिंदू सिखों को घाटी छोड़ कर जाना पड़ा। ये दोनों घटनाएं ज्यादा गंभीर हैं और देश के बुद्धिजीवी समाज की तवज्जो की मांग करती हैं, लेकिन भंसाली को लेकर गला फाड़ने वाले समुदाय के लिए ये दोनों स्थितियां महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। भंसाली के साथ इस प्रकार मारपीट नहीं की जानी चाहिए थी, यह घोषणा करने के बाद मैं संजय लीला भंसाली के मामले पर टिप्पणी करना भी जरूरी समझता हूं। भंसाली अल्लाउद्दीन खिलजी को लेकर एक फिल्म बना रहे हैं। कहा जाता है कि उन्होंने फिल्म में भारत के लोगों को यह समझाने की कोशिश की है कि खिलजी का पद्मावती के साथ प्रेम संबंध था। भंसाली का दुर्भाग्य है कि भारत के लोग इतिहास में यह पढ़ते आए हैं कि अल्लाउद्दीन खिलजी पद्मावती पर बुरी नजर रखता था। पद्मावती ने अपने सम्मान की खातिर जौहर की ज्वाला में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।

भंसाली इससे पहले भी भारत के लोगों को नए तरीके से इतिहास पढ़ा रहे हैं। उन्होंने ही एक फिल्म बाजीराव मस्तानी बनाई थी, जिसमें भारतीय इतिहास के युग पुरुष बाजीराव के चरित्र के साथ छेड़छाड़ की गई थी। दरअसल यह मामला केवल संजय लीला भंसाली का नहीं है। भंसाली तो मात्र एक मोहरा भर है। भारत में मध्य एशिया से आकर अपना राज्य स्थापित करने वाले और मजहबी कारणों से मतांतरण अभियान चलाने वाले मुगल शासकों को विदेशी शासक व उनके राज को विदेशी राज न मान कर देशी राज मान लिया जाए, इसका प्रयास 1947 में अंग्रेज शासकों के चले जाने के बाद से ही शुरू हो गया था। मुगल आक्रांताओं को गिने-चुने इतिहासकारों द्वारा महिमामंडित करवाने और जिन लोगों ने इन आक्रांताओं से लोहा लिया था, उन्हें नकारात्मक ढंग से चित्रित करवाने का षड्यंत्रकारी अभियान चलाया गया। भारत गणतंत्र के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल आजाद को बनाया गया, जिनके पूर्वज अरब से हिंदोस्तान में आए थे। नेहरू का चिंतन और आजाद का चिंतन और दृष्टिकोण मुगलों को लेकर एक जैसा ही था। मुगल शासकों का मूल्यांकन हमलावर के रूप में नहीं, बल्कि गुड गवर्नेंस के आधार पर किया जाने  लगा। इसी आधार पर अकबर की प्रशंसा में गीत लिखे जाने लगे। बड़े-बड़े शहरों में मुगल शासकों के नाम पर सड़कों के नाम रखने का अभियान चलाया गया।

आम तौर पर सड़क का नाम किसी महापुरुष के नाम पर इस लिया रखा जाता है, ताकि लोग उस महापुरुष के जीवन से प्रेरणा ले सकें और उसके रास्ते पर चलने का संकल्प लें। दिल्ली में सड़कों के नाम बाबर, हुमांयू, शाहजहां, जहांगीर, अकबर और औरंगजेब के नाम पर रखे गए। स्पष्ट है कि सरकार भारतीयों को स्पष्ट संकेत दे रही थी कि ये लोग आपके महापुरुष हैं। सरकार की नीति का यह पहला हिस्सा था। दूसरा हिस्सा पहले हिस्से का पूरक ही है। वह हिस्सा है मुगल आक्रांताओं से लड़ने-भिड़ने वाले लोगों की हेठी करना और उन्हें समाज विरोधी सिद्ध करना। इस काम के लिए उन्हें बहुत मशक्कत करने की जरूरत नहीं है। मुगल आक्रांताओं के साथ आए अरबी/तुर्की/अफगानी/ईरानी इतिहासकारों ने पहले ही अपनी किताबों में ऐसी काफी सामग्री भर रखी है। मुगलों के पक्षधर वर्तमान इतिहासकारों को उसको प्रमाण मान लेने में क्या आपत्ति हो सकती है? जो थोड़ी बहुत कमी रहती थी, वह अंग्रेज इतिहासकारों ने पूरी कर दी। (भारत पर लिखने बाले बहुत से अंग्रेज लेखक वास्तव में इतिहासकार थे ही नहीं, वे सिविल सर्विस के अधिकारी थे) लेकिन मुगलों के पक्षधर वर्तमान भारतीय इतिहासकारों के लिए तो गोरे सिविल सर्वेंट के वचन भी वेद वाक्य बन गए। परंतु इस पूरी योजना में एक कमी अभी भी बचती थी। इतिहासकार जो मर्जी लिखते-पढ़ते रहें, इस देश की आम जनता मुगलों से लोहा लेने वाले योद्धाओं को जन नायक ही मानती है। आम जनता की नजर से इन स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों को गिराने के लिए अंततः सिनेमा का सहारा लिया गया। सिनेमा की पहुंच दूर-दूर तक है और प्रत्यक्ष दिखाई गई चीज का आम जनता पर गहरा असर होता है।

संजय लीला भंसाली सिनेमा जगत की उसी मंडली का हिस्सा है, जिन्हें भारत के जन नायकों को किसी भी तरह खलनायक सिद्ध करना है। लीला भंसाली की फिल्म में पद्मावती अल्लाउद्दीन खिलजी की प्रेमिका ही हो सकती थी। अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर करने वाली वीरांगना नहीं। इसी अभियान के अंतर्गत योद्धा अकबर भी बनेगी और टीपू सुल्तान भी बनेगी। लोकतंत्र समर्थकों का तर्क तो ठीक है। किसी को भंसाली के काम पर आपत्ति है, तो विरोध दर्ज करवाने के लोकतांत्रिक तरीके भी हैं। न्यायालय तो है ही। पर लोगों में निराशा तब आती है, जब पेटा जैसी एक विदेशी संस्था भारत के न्यायालय से ही हजारों साल पुरानी जल्लकट्टू जैसी सांस्कृतिक परंपरा को प्रतिबंधित करवाने में सफल हो जाती है। यह वह दृष्टि है जिसके अनुसार बैल को मार कर खा जाना उचित है, लेकिन उसको कुछ देर के लिए दौड़ाना उस पर अत्याचार करना है। पद्मावती का अपमान करना उचित है, लेकिन अपमान करने वाले को रोकना अनुचित है। या खुदा! अपमान करने का तरीका तो अनसिविल भी ठीक है, लेकिन रोकने का तरीका सिविल ही होना चाहिए। राजस्थान के लोगों को पद्मावती के सम्मान की रक्षा के लिए सिविल तरीके सीखने चाहिए, लेकिन भंसाली को सिविल तरीके कौन सिखाएगा?

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