भुट्टिको बना हिमाचली ब्रांड

भुट्टिको के उत्पादों को राष्ट्रीय हैंडलूम टैग का मिलना प्रदेश की हस्ती में भी इजाफे जैसा है। ये सहकारिता आंदोलन की हिमाचली बनावट के आदर्श हैं, जो राष्ट्रीय पहचान में शरीक हो रहे हैं। जाहिर तौर पर अब कुल्लू की शाल को प्रदर्शन का बड़ा नेटवर्क व बाजार मिलेगा और इस तरह पारंपरिक कला को आगे बढ़ाने का आर्थिक विस्तार भी होगा। हम इसे महज एक उत्पादक इकाई के रूप में सफल होते नहीं देखते, बल्कि भुट्टिको की सारी मेहनत से बने हिमाचली ब्रांड पर फख्र महसूस कर सकते हैं। भुट्टिको ने अपने उत्पादों में गुणवत्ता और बाजार की जरूरतों को ही पूरा नहीं किया, बल्कि बुनकर समाज को बुनियादी सहूलियतों के साथ आश्रय भी दिया। सहकारिता क्षेत्र में अगर गुजरात के आणंद में दूध की गंगा पैदा हुई, तो हिमाचल में भुट्टिको के कारण कुल्लू शाल ने शीतकाल को अपनी भुजाओं में समेट लिया। भुट्टिको के अध्यक्ष सत्य प्रकाश ठाकुर ने जिस भावना से हिमाचली उत्पादों का एक बड़ा बाजार खड़ा किया है, उसके प्रभाव क्षेत्र में पूरे राज्य के कलात्मक पक्ष को मजबूती मिली है। विडंबना यह है कि हिमाचली शाल के पैटर्न पर पावरलूम से निकले नकली उत्पाद प्रदेश की छवि को खराब कर रहे हैं। गुजरात, राजस्थान व दक्षिण भारतीय राज्यों ने जिस प्रकार अपने पारंपरिक व ग्रामीण उत्पादों को पर्यटन से जोड़ा है, उस तरह का माहौल हिमाचल में नहीं बना। आश्चर्य तो यह कि पर्यटन विकास बोर्ड ने ब्रांडिंग का आधार खोजने के लिए बालीवुड के चक्र तो लगाए, लेकिन हिमाचली उत्पादों की ब्रांडिंग नहीं की। हम अगर चाहें तो कांगड़ा चित्रकला को संग्रहालय की दीवारों से सीधे उपभोक्ता के दिल तक जोड़ सकते हैं। चंबा रूमाल, धातु व काष्ठकलाओं को ब्रांड हिमाचल से जोड़कर देखें, तो विश्व समुदाय के सामने अद्भुत खजाना पेश होगा। कुछ गैर सरकारी संस्थानों तथा स्वयं सहायता समूहों के प्रयास से सिड्डू का बाजार विस्तृत हो सकता है, तो हिमाचली स्वाद की विस्तृत परिपाटी का संरक्षण स्वाभाविक है। कांगड़ा स्थित राष्ट्रीय फैशन प्रौद्योगिकी व हमीरपुर के भारतीय होटल प्रबंधन जैसे संस्थानों के मार्फत हिमाचली हाट व खानपान बाजार विकसित हो पाएंगे। हिमाचली कलेवर में शुरू हुई ड्रेस डिजाइनिंग के कुछ प्रयास निजी क्षेत्र में हुए हैं, लेकिन सरकारी तौर पर किसी मुहिम का आगाज नहीं हुआ। कलाओं के संगम पर कभी अंद्रेटा को कलाग्राम की उपमा मिली, लेकिन यह सफर आज भी अधूरा है। इसी तरह धरोहर गांव की शिनाख्त में उभरे गरली-परागपुर की उम्मीदों पर अंधेरा पसर गया। बेशक भुट्टिको ने अपना मुकाम हासिल करते हुए शाल, पट्टी व स्टाल जैसे उत्पादों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मांग से जोड़ दिया, लेकिन इसे सरकारी तौर पर क्या हम हिमाचली ताज पहना पाए। कहना न होगा कि अपने तौर पर तैयार हुए इस ब्रांड के कारण आज हिमाचली शाल की तारीफ होती है और इसी कारण कई लघु व बड़ी इकाइयां कुल्लू, मंडी, कांगड़ा व चंबा तक खुल गई हैं। हिमाचल को पहल करते हुए राज्य के विभिन्न ब्रांडों  के प्रशिक्षण का एक केंद्रीय संस्थान कुल्लू में खोलना चाहिए। बेशक हमने राजनीतिक टोपियों के रंग पहचान लिए, लेकिन उसको बनाने वाले बुनकर का सिर झुका दिया। कुल्लू के बुनकर को अगर आज बाजार हासिल है, तो यह श्रेय भुट्टिको को सबसे पहले मिलेगा, लेकिन किन्नौर की शाल-सिरमौर के लोइया को कब संजीवनी मिलेगी। कई खड्डियां आज भी उदास हैं और चूल्हे पर चढ़ा हिमाचली स्वाद भी। कलाकार, बुनकर या दस्तकार के प्रति पर्यटन विभाग की नैतिक जिम्मेदारी का निर्वहन अभी बाकी है।