युवा प्रश्नों की सियासत

हिमाचली सियासत पुनः युवा ढाल पर अपने प्रश्नों का उत्तर खोज रही है। अफसोस यह कि ऐसे विषय राजनीति की बिसात पर चुनावी वर्ष की अमानत बन जाते हैं जबकि युवाओं का केवल इस्तेमाल ही होता है। परिवार की अपनी महत्त्वाकांक्षा में जो नेता हिमाचली युवाओं के भविष्य पर चिंतित हैं, उनके संदर्भों को खंगाल कर देखें तो मालूम होगा कि इनके पालने में वास्तव में पारिवारिक राजनीति की परवरिश किस हद तक हो रही है। यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में कुछ नेताओं के परिवार ही आगे बढ़े, जबकि राजनीति ने भी युवा चरित्र को जगह नहीं दी। दरअसल इस दौरान नेताओं के साथ जो समृद्धि जुड़ी, वह उनके परिवारों की राजनीति में बंट गई और इन्हीं से निकल कर चमकने लगे उनके सगे संबंधी। इसलिए युवा मसलों पर ईमानदार दिखने वाले नेता सर्वप्रथम यह क्यों नहीं घोषित करते कि बिना लाग-लपेट वे अपने रिश्ते-नातों, जाति या क्षेत्र विशेष को नहीं चमकाएंगे। सरकारी नौकरियों के जो दस्तावेज अदालतों में पहुंचते हैं, वे साबित करते हैं कि किस तरीके से बंदरबांट होती है और इनसे नत्थी रहते हैं नेताओं के स्वार्थ। जरा गौर करें कि विभिन्न भर्ती प्रक्रियाओं को लेकर माननीय अदालतों ने क्या-क्या टिप्पणियां कीं या निर्देश दिए। आश्चर्य यह कि इससे हटकर राजनीति आम युवा की प्रगति की विनाशक ही रही है। जो समझते हैं कि चंद सिक्के युवाओं की जेब में डालकर इस पीढ़ी का भला हो जाएगा, वे गौर करें कि स्वावलंबन का अर्थ क्या होता है। क्या पैंतालीस साल तक सरकारी नौकरियों का प्रवेश द्वार खोलकर हम युवा पीढ़ी पर उपकार कर रहे हैं या मासिक हजार रुपए की बेरोजगारी पगार बांध कर इस वर्ग का भविष्य लिख पाएंगे। यह दीगर है कि जिस जहाज पर कांग्रेस के ही कुछ नेता सवार होना चाहते हैं, वहां रन-वे पर युवाओं की कतार खड़ा करने की कोशिश हो रही है। विडंबना यह भी कि वर्षों से केंद्रीय विश्वविद्यालय को सियासी मांद में तबदील करने वालों ने इस संस्थान की बुनियाद तक तबाह कर दी। बेशक कुछ मुट्ठी भर नेताओं को यह संस्थान राजनीतिक फायदे का सौदा लगता हो, लेकिन युवा शिक्षा के संदर्भों में ऐसी खोखली जमीन पर भविष्य तय नहीं होता। युवाओं की वकालत करती राजनीति का एक सच यह भी कि शिक्षाविदों के फैसले भी नेता लेते हैं। इसलिए संस्थानों की योग्यता व प्रासंगिकता के बजाय नेताओं की प्रासंगिकता अहम हो जाती है। सरकार के इसी दौर में कालेजों की क्रमबद्ध शृंखला के प्रारूप में नेता तो प्रासंगिक हो गए, लेकिन शिक्षा की उपयोगिता निरंतर कम हो रही है। नए कालेजों ने कितने प्रतिष्ठित संस्थानों की जमीन सरकाई है, इसका भी तो अंतर समझा जाए। बिना उपयुक्त फैकल्टी के स्कूल, कालेज या मेडिकल कालेज खोलना अगर अपराध है, तो विश्वविद्यालय या केंद्रीय शिक्षण संस्थानों को राजनीतिक स्थल पर खोदना तो शिक्षा के प्रति कत्ल है। आईआईएम जैसे संस्थान को प्रदेश के जिस छोर पर राजनीतिक समर्थन या एम्स को सियासी प्रभाव मिला, उससे इनकी प्रासंगिकता का मूल प्रश्न हल नहीं होगा। अतः युवाओं को गुणात्मक शिक्षा देने के लिए ऐसे स्थानों का चयन आवश्यक है, जहां फैकल्टी हर्ष से आना चाहे। बहरहाल चुनावी वर्ष में युवाओं के प्रति नेताओं का विलाप सियासत से ऊपर इसलिए भी नहीं, क्योंकि हमने विधानसभाओं के कई सत्र महज राजनीति के लिए गर्क होते देखे हैं। ऐसी बहस का माहौल और विषय किसी सत्र की निगहवानी में नहीं हुआ, ताकि पता चलता कि सत्ता और विपक्ष वास्तव में करना क्या चाहते हैं। नेताओं में अगर लोकलाज है तो अभिभावकों से पूछें कि क्यों पढ़ाई आज भी रोजगार के बाजार में शून्य हो रही है और उस निजी क्षेत्र का सम्मान करके देखें, जिसकी बदौलत युवा उम्मीदों की सांझ नहीं होती।