लोकार्पण

प्रतिष्ठित साहित्यकार नरेंद्र कोहली को हाल ही में पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया है। व्यवस्थागत उपेक्षाओं के बावजूद साहित्य जगत उनकी सशक्त उपस्थिति महसूस करता रहा है। हिंदी साहित्य में महाकाव्यात्मक उपन्यास विधा को प्रारंभ करने का श्रेय नरेंद्र कोहली को ही दिया जाता है। भारतीय जन-मन में रची-बसी सांस्कृतिक कथावस्तु को नवीन कलेवर देकर उसे सामयिक बना देना उनकी सबसे बड़ी खूबी है। उनके चर्चित उपन्यास ‘महासमर’ में उनकी यह विशेषता पग-पग पर महसूस की जा सकती है। वह अपने चुटीले व्यंग्यों के लिए भी जाने जाते हैं। साहित्यिक क्षेत्र की विडंबनाओं पर तंज कसता उनका चर्चित व्यंग्य पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है  …

प्रकाशक-1 का फोन आया कि मेरी पुस्तक छप गई है और उसका लोकार्पण पुस्तक मेले में 11 फरवरी को पांच बजे होगा। मैंने स्वीकृति दे दी। न देता तो क्या करता। लोकार्पण तो मेरी अनुपस्थिति में भी हो जाता। भारत में कहां लोक नहीं है और अर्पण तो सदा ही स्वीकार्य होता है। तभी एक नवलेखक का फोन आया कि वह चाहते हैं कि मैं उनकी पुस्तक का विमोचन पुस्तक मेले में प्रकाशक- 2 के स्टॉल पर कर दूं। मैंने सहमति दे दी। सोचा पांच बजे अपनी पुस्तक का लोकार्पण करवाने जाना ही है, इसे चार बजे का समय दे देते हैं। समय निश्चित हो गया। रात को मध्यप्रदेश से एक लेखक मित्र का फोन आया कि उनकी पुस्तक भी छप गई है। वह उसका विमोचन करवाने रात की गाड़ी से दिल्ली पहुंच रहे हैं। मैं यदि उनकी पुस्तक का विमोचन पुस्तक मेले में प्रकाशक- 3 के स्टॉल पर कर दूं तो मेरी बड़ी कृपा होगी। मैंने उन पर भी कृपा कर दी और साढ़े तीन बजे का समय रख दिया। अगले दिन एक मित्र का फोन आया कि प्रकाशक – 4 के यहां अनेक पुस्तकों का विमोचन होना है, वह चाहते हैं कि उनमें एक पुस्तक का विमोचन मैं कर दूं। प्रकाशक सीधे मुझसे बात करने से घबराते हैं, इसीलिए प्रकाशक के स्थान पर वे फोन कर रहे हैं। मैं उन्हें मना कर नहीं सकता था। साढ़े चार बजे का समय तय हो गया। ग्यारह फरवरी को मैं दोपहर को मेले में पहुंच गया। अपने प्रकाशक के यहां गया। वह मुझे देख कर घबराए और चहक उठे। पुकार-पुकार कर अपने कर्मचारियों को आदेश दिया। मुझे जो कुछ भेंट कर सकते थे, कर दिया और कॉफी भी पिला दी। मैं समझ गया कि वह चाहते थे कि अब मैं वहां से खिसक जाऊं। उनके यहां कोई विमोचन होने वाला था। वह एक ऐसे लेखक करने वाले थे, जो मुझे देख नहीं सकते थे और मैं उनको नमस्कार करना भी पसंद नहीं करता था। द्वेष के बिना साहित्यकार कैसा? हम दोनों के द्वेष में बेचारा प्रकाशक परेशान था। विमोचन के लिए उसको बुलाया था, इसलिए मुझे आमंत्रित भी नहीं किया था।  अब संयोग से मैं आ गया था। ऐसा न हो कि मेरी उपस्थिति में वह दूसरे दुर्जन आ जाएं और हम दोनों उस स्टॉल पर ही भिड़ जाएं। इसलिए मेरा सत्कार कर मुझे विदा करना चाहते थे। मैं चल पड़ा। मैं भी उस मनहूस की सूरत नहीं देखना चाहता था, किंतु यह कामना मन में ही रह गई कि अपने प्रकाशक से पूछ पाता कि अपने स्टॉल पर उसने कुछ दूसरे लेखकों के पोस्टर लगाए थे तो मेरा पोस्टर क्यों नहीं लगाया। पर सोचा, यह सब पूछने के लिए रुकता तो वह दूसरा विमोचनकर्ता लेखक भी आ जाता। उसका महत्त्व मैं सह नहीं पाता। अपना ही खून जलाता न। प्रकाशक तो व्यापारी है, उसे तो मुझे भी प्रसन्न रखना है और उसे भी। मैं रुष्ट होता तो उस का एक बिकनेवाला लेखक हाथ से चला जाता। मेरा विरोधी रुष्ट होता तो प्रकाशक के हाथ से पुस्तक खरीद करवाने वाला निकल जाता। लेखकों की लड़ाई में प्रकाशक बेचारा नाहक ही मारा जा रहा था। मुझे मार्ग में एक प्रकाशक ने बांह पकड़ कर रोक लिया। उसने कभी ढंग से मेरी पुस्तक की रॉयल्टी नहीं दी थी, इसलिए मुझसे बचता फिरता था, किंतु आज उस ने स्वयं मेरा मार्ग छेक कर मुझे रोका था। ‘आप की पुस्तकों का बिक्री विवरण लाया हूं।’ उसने कहा। मैं चकित रह गया। विवरण हाथ में ले कर देखा- पिछले पांच छह वर्षों का विवरण था। किसी वर्ष में दो प्रतियों की बिक्री दिखाई गई थी, किसी में चार की। सब से अधिक बिक्री पांच पुस्तकों की थी।

‘आपके यहां मेरी पुस्तक नहीं बिकती।’

मैंने कहा, ‘आप इसके अधिकार मुझे लौटा क्यों नहीं देते?’

वह हंसा, ‘ कम से कम हमारी सूची में आपका नाम तो है।’

अर्थात वह मेरी पुस्तक लौटाएगा भी नहीं और उसकी रॉयल्टी भी नहीं देगा। ‘एक बिल है।’ उसने कहा। मैंने देखा मेरे नाम पर एक बड़ा बिल दिखा रखा था। पिछले किसी मेले में उन्होंने वह पुस्तक मुझे भेंट की थी। बाद में विचार बदल दिया होगा। लिखा था कई वर्षों से बिल का भुगतान नहीं हुआ था। मैं समझ गया कि अगले कई वर्षों तक मेरी रॉयल्टी उसी बिल के खाते में जाएगी। खाता था या अंधा कुआं था, उस से रॉयल्टी उबर ही नहीं पाती थी। मैंने पहला विमोचन किया। मिठाई खाई। दो चार शब्द कहे और चित्र खिंचवा कर चल पड़ा। दूसरे प्रकाशक के यहां एक मुझसे भी वरिष्ठ लेखक बुला लिए गए थे। वह कुछ रूठे हुए थे। शायद इसलिए कि उनकी उपस्थिति में भी लोकार्पण मैं क्यों कर रहा था। मैं भी सोच रहा था कि जब उनको भी बुलाना था तो मुझे ही क्यों बुला लिया? व्यंग्य की पुस्तक थी। मैंने दो चार वाक्य व्यंग्य की शैली में बोल दिए और दस बीस लोगों को रुष्ट कर भागता हुआ अगले प्रकाशक के पास पहुंचा।

मुझे देखते ही वह बोले, ‘अरे कोहली साहब! लोकार्पण कार्यक्रम तो हो गया।’

मैंने घड़ी उनके आगे कर दी। मैं ठीक समय पर आ गया था। किंतु कुछ लेखक मुझ से पहले भी वहां पहुंच गए थे। एक टीवी कैमरा भी उपस्थित था। इसलिए लोगों को लोकार्पण की जल्दी मच गई। मेरी प्रतीक्षा करते तो शायद मेरा भी चित्र आ जाता। उनको कुछ सिमटना पड़ता। क्यों सिमटते वे। मेरे आने से पहले ही फैल गए।

मैं मिठाई खाने के लिए भी नहीं रुका। खाता तो मुंह कड़वा हो जाता। वह प्रकाशक पहले भी मुझ से घबराए हुए थे। अब तो सोच लिया कि मैं ही उनसे घबरा जाया करूंगा। अंत में अपनी पुस्तक का लोकार्पण करवाने पहुंचा। कुछ लोग आसपास से घिर आए थे और सजी हुई पुस्तकों को देखते हुए लोकार्पण की प्रतीक्षा कर रहे थे। सहसा घड़ी देख कर उस प्रकाशन के अधिकारी महोदय ने पुस्तक का बंधा बंडल उठाया और एक भी शब्द बोले बिना उसे लोकार्पणकर्ता के सम्मुख कर दिया। डा. साहब ने अपनी शालीनता में चुपचाप रिबन खोल कर पुस्तक का लोकार्पण कर दिया। बर्फी का डिब्बा घूम गया तो पता चला कि लोकार्पण हो गया। जो लोग नहीं आए थे, वे तो नहीं ही आए थे। जो आए थे वे बेचारे भी खड़े रह गए। उनकी पीठ पीछे लोकार्पण हो गया। पता चला कि कैसे बड़े-बड़े काम गुपचुप ही हो जाते हैं। डा. साहब उस पुस्तक पर कुछ कहना चाहते थे, किंतु अधिकारी महोदय ने उनके हाथ में काफी का प्याला पकड़ा कर उन्हें चुप रहने पर बाध्य कर दिया। किसी ने कहा, ‘पुस्तक मेले में लोकार्पण बड़ा अनुकूल रहता है। न हॉल लो, न किराया दो, न किसी को निमंत्रित करो। न विमोचनकर्ता को आने जाने का किराया दो। बस एक लेखक को बुला लो। एक विमोचनकर्ता पकड़ लो। बहुत हुआ तो एक किलो बर्फी मंगवा लो। धूमधड़ाके से विमोचन हो जाता है। लेखक का मुंह बंद करने का इस से अच्छा मार्ग और क्या हो सकता है।            — डा. नरेंद्र कोहली