सूर्यग्रहण और साधना

यदि हम ग्रहण काल से भयभीत होने के बजाय उसे साधना काल की तरह लें और समर्पित भाव से साधना करें, तो ग्रहण काल हमारे लिए कल्प वृक्ष बन जाता है। इस साधना काल को यूं ही व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए…

सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण को लेकर भारतीय समाज बहुत सजग रहा है। ग्रहण काल को लेकर दो तरह की धारणाएं भारतीय समाज में विद्यमान रही हैं। पहला यह कि इसका मानव जीवन पर कुछ विपरीत प्रभाव पड़ता है और दूसरा इसे आध्यात्मिक साधना के लिहाज से बहुत फलदायी माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि ग्रहण काल में मंत्र बहुत जल्द ही सिद्ध हो जाते हैं और अभीष्ट फल प्रदान करते हैं।   सूर्य ग्रहण तथा चंद्र ग्रहण के मानव जीवन पर पड़ने वाले शुभाशुभ प्रभावों का वैदिक काल से ही वर्णन प्राप्त होता है। पुराणों में इस विषय पर विस्तृत चर्चा मिलती है। महाभारत में भी युद्धकाल में हुए ग्रहणों तथा उनके अशुभ प्रभावों का विशद वर्णन हुआ है। ग्रहण के कारण उत्पन्न अशुभ फलों के नाश के लिए सूर्य तथा चंद्र ग्रहण के समय स्नान, हवन, देव-पूजन तथा दानादि का विशेष महत्त्व बताया गया है। ज्योतिषीय दृष्टि से देखें तो मानव जीवन में सूर्य व चंद्रमा का स्थान बहुत निर्णायक माना जाता है।  सूर्य को जगत की आत्मा व चंद्रमा को मन माना जाता है। ग्रहण के समय सूर्य व चंद्रमा राहु के दुष्प्रभाव में होने से दुर्बल स्थिति में होते हैं। इस कारण विविध विधानों का उल्लेख मिलता है। ग्रहण के समय पूरे सौरमंडल में विकार उत्पन्न हो जाते हंै। सूर्य का प्रकाश ही पृथ्वी पर जीवन का कार्य करता है। अतः सूर्य की किरणों के अभाव में सभी व्यक्तियों को व्याकुलता प्रतीत होती है तथा हानिकारक तरंगे भी इस समय में निकलती हैं।  ज्योतिष की दृष्टि में ग्रहण एक अशुभ घटना तो है परंतु इसका दुष्प्रभाव किसी व्यक्ति पर अधिक, किसी पर मध्यम व किसी पर सामान्य होता है। ग्रहण जिस राशि में व नक्षत्र में बनता है उस राशि के जातकों पर ग्रहण का विशेष प्रभाव पड़ता है। जिस राशि में ग्रहण हो रहा होता है, उसी के आधार पर मनुष्यों को शुभाशुभ फलों की प्राप्ति होती है। ज्योतिष शास्त्र के गोचर प्रकरण में इस विषय पर विशेष प्रकाश डाला गया है। मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार-‘जन्मर्क्षे निधनं ग्रहे जनिभतो घातः क्षतिः श्रीर्व्यथा चिंता सौख्यकलत्र दौस्थ्यमृतयः स्युर्माननाशः सुखम्। लाभोऽपाय इति क्रमात्त दशुभध्वस्त्यै जपः स्वर्णगो- दानं शांतिरथो ग्रहं त्वशुभदं नो वीक्ष्यमाहुःपरे।।’ अर्थात जन्मराशि में ग्रहण लगने से शरीर पीड़ा, दूसरी राशि में क्षति व द्रव्यनाश, तीसरी में लाभ, चौथी में शरीर पीड़ा, पांचवीं में पुत्रादिकों की चिंता, छठी राशि में सुख प्राप्ति, सातवीं राशि में स्त्री-मरण, आठवीं में अपना मरण, नवम राशि में मन का नाश, दशम में सुख, एकादश राशि में लाभ और जन्म राशि से द्वादश राशि में ग्रहण होने पर मृत्यु होती है। नक्षत्र संबंधी फलादेश में समस्त विद्वान एकमत हैं। सभी कहते हैं कि यदि जन्म नक्षत्र पर सूर्य या चंद्र ग्रहण होता है तो निश्चित रूप से अनिष्ट फलप्रद होता है। जन्म नक्षत्र में हुआ ग्रहण जातक को रोग, भय, धन क्षय के साथ-साथ मृत्यु का भय भी उत्पन्न करता है। जब भी ग्रहण होता है तो ग्रहण के स्पर्श से पूर्व ही इसका प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। इसे सूतक काल कहते हैं। चंद्र ग्रहण में स्पर्श से 9 घंटे पहले व सूर्य ग्रहण में 12 घंटे पहले सूतक प्रारंभ हो जाते हैं। ग्रहण के स्पर्श से मोक्ष तक के समय में भोजन बनाना, खाना, सोना, मूर्ति स्पर्श आदि वर्णित होता है तथा बिना किसी उपकरण के आकाश की ओर देखना भी हानिकारक होता है। सूतक काल से मोक्ष काल तक की समयावधि साधना के लिहाज से बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। साधनाएं सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के दुष्प्रभावाओं को कम करने के लिए तो की ही जाती हैं, सिद्धि की अधिक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए भी समर्पित ढंग से साधना की जाती है। ऐसी मान्यता है कि ग्रहण के दौरान ग्रहों की विशेष स्थिति ब्रह्मांड में ऊर्जा के स्तर और गति को प्रभावित करती है, इसलिए विशिष्ट और निश्चित फल की कामना के साथ की जाने वाली साधनाओं के लिए ग्रहण काल को श्रेष्ठ माना जाता है। कुछ साधक लंबे समय तक इंतजार करते हैं और ग्रहण काल में ही पूर्णाहुति कर सिद्धियां प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। शास्त्रों में साधना से पहले विविध कर्मों का विधान किया है ताकि दुष्प्रभावों का बचकर आत्मिक उन्नति प्राप्त की जा सके। ऐसे विधानों में स्नान, दान का विशेष महत्त्व बताया गया है। जब तक ग्रहण काल रहे तब तक पूजा-पाठ, दान आदि करना चाहिए। सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण होने से समस्त वर्ण के लोगों को सूतक होता है, अतः सूतक से निवृत होेने के लिए स्नान आवश्यक होता है-

‘सर्वेषामेव वर्णानां सूतकं राहुदर्शने।

सचैल तु भवेत्स्नानां सूतकान्नं विवर्जयेत्।’

स्नान हेतु तीर्थों के जल का विशिष्ट महत्त्व बताया गया है। ग्रहण काल के प्रारंभ होते ही स्नान कर लेना चाहिए। ग्रहण काल में औषधि स्नान का भी विशेष महत्व है। औषधि स्नान हेतु दूर्वा, खस, शिलाजीत आदि औषधियों को जल में डालकर, पुनः उससे स्नान करने से ग्रहणजन्य अनिष्ट का नाश होता है। स्नानोपरांत निम्नलिखित स्तोत्र का 11 बार पाठ करना चाहिए- योऽसौ वज्रधरो देव आदित्यानां प्रयत्नतः। सहस्रनयनः शक्त्रो ग्रहपीड़ां व्यपोहतु।। चतुः शृङ्गः सप्तहस्तः त्रिपादो मेषवाहनः। अग्निश्चन्द्रोपरागोत्थां ग्रहपीड़ां व्यपोहतु।। यः कर्मसाक्षी लोकानां धर्मो महिषवाहनः। यमश्चन्द्रोपरागोत्थां ग्रहपीड़ां व्यपोहतु।। रक्षोगणाधिपः साक्षात्प्रलयानलसन्निभः। खड्गचर्मातिकायश्च रक्षःपीड़ा व्यपोहतु।। नागपाशधरो देवः सदा मकरवाहनः। वरूणोम्बुपतिः साक्षाद्ग्रहपीड़ां व्यपोहतु।। प्राणरूपो हि लोकानां चारूकृष्णमृगप्रियः। वायुश्चन्द्रोपरागोत्थग्रहपीड़ां व्यपोहतु।। योऽसौ निधिपतिर्देवः खड्गशूलगदाधरः। चंद्रोपरागकलुषं धनदोऽत्र व्यपोहतु।। योऽसौविन्दुधरो देवः पिनाकी वृषवाहनः। चंद्रोपरागजां पीड़ां स नाशयतु शंकरः।। तैलोक्ये यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च। ब्रह्माविष्ण्वर्कयुक्तानि तानि पापं दहंतु मे।। आमंत्रणे लेखने चाप्येते पूजनमंत्रकाः। अर्चयित्वा पितृन्देवान् गोभूस्वर्णवरादिभिः।। अनेन विधिना यस्तु ग्रहस्नानं समाचरेत। न तस्य ग्रहपीड़ा स्याद्यानबन्धुधनक्षयः।। परमा सिद्धिमाप्नोति पुनरावृत्तिदुर्लभाम्। सूर्यग्रहेप्येवमेव सूर्यनाम्ना विधीयते।। ऐसी मान्यता है कि इस स्तोत्र के पाठ से ग्रहणजन्य समस्त अरिष्टों का नाश हो जाता है।

इसी तरह ग्रहण काल में किए गए दान का भी विशिष्ट महत्त्व होता है। ग्रहण काल में दिए गए दान का पुण्य कभी क्षीण नहीं होता है। दान की प्रक्रिया में पात्र का चुनाव एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। सत्पात्र को दिया गया दान ही फलदायी होता है। सुपात्र को दान देने से अधिक पुण्य होता है। तप और विद्या दोनों से जो युक्त है, वह दान का मुख्य पात्र होता है। महाभारत में भी कहा गया है कि ग्रहण काल में भूमि, गांव, सोना इत्यादि वस्तुओं का स्वकल्याण हेतु दान देना चाहिए। ग्रहणकाल में गाय के दान से सूर्यलोक प्राप्ति, बैल के दान से शिवलोक की, सुवर्ण दान से ऐश्वर्य की, भूमि दान से राजपद की ओर अन्न दान करने से समस्त सुखों की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार वस्त्र दान से यश की, चांदी के दान से सुंदर स्वरूप की, फलदान से पुत्र प्राप्ति की, घृत के दान से सौभाग्य की और  हाथी के दान से भूमि की प्राप्ति होती है। नमक का दान शत्रुनाशक माना जाता है।

 शास्त्रों में स्नान, जाप और दान का क्रम भी निर्धारित किया गया है- ग्रहणस्पर्शकाले स्नान मध्ये होमः सुरार्चनम। श्राद्धं च मुच्यमाने दानं मुक्ते स्नानमिति क्रमः। अर्थात ग्रहण में स्पर्श के समय स्नान, मध्य में जप और होम और ग्रहण मोक्ष के समय में  दान और समाप्ति पर एक बार फिर स्नान करना चाहिए। इस क्रम के अनुसार प्रारंभ और अंत को छोड़ दे, तो संपूर्ण ग्रहण काल आराधना और जप-तप का काल है। इस कालावधि में अपने इष्टदेव की आराधना करनी चाहिए। उनके मंत्रों का संकल्पित संख्या के अनुसार जाप करना चाहिए। जप समाप्त होने के बाद दान किया जात है। यदि हम ग्रहण काल से भयभीत होने के बजाय उसे साधना काल की तरह लें और समर्पित भाव से साधना करें, तो ग्रहणकाल हमारे लिए कल्प वृक्ष बन जाता है। इस साधना काल को यूं ही व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए।