हताशा से भरी भाषा

( रूप सिंह नेगी, सोलन )

इसमें दो राय नहीं कि हाल के कुछ समय से देश के नेताओं ने भाषा के स्तर को न्यूनतम पायदान पर पहुंचा दिया है। इसे दुर्भाग्यपूर्ण और भारतीय मूल्यों के विपरीत ही कहा जा सकता है। उत्तर प्रदेश की चुनावी रैलियों में जनता सब देख रही है  कि किस-किस दल का कौन-कौन सा नेता किस स्तर की भाषा का प्रयोग कर रहा है। छोटे नेताओं का तो क्या कहना, यहां तो आला नेता भी अमर्यादित भाषा के प्रयोग पर उतारू दिखते हैं। इसे बौखलाहट की भाषा ही कहा जा सकता है, जिसका मकसद मात्र वोट हासिल कर सत्तासीन होना है। ऐसा लगता है कि तीन चरणों के चुनाव के बाद ही नेताओं में हताशा का वातावरण बन चुका है। इसके अतिरिक्त कहीं न कहीं मजहबी व जातीय वोटों के ध्रुवीकरण करने के लिए नेता प्रयासरत हैं। विकास के मुद्दों के बजाय ऐसे वादों की भरमार है, जो नेताओं को वोट दिला सकते हैं। इस नई पनपती परंपरा पर रोक लगाना जरूरी हो गया है।