आध्यात्मिक उन्नति

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति का रूप भी ठीक ऐसा ही है। न कोई तुम्हें शिक्षा दे सकता है और न कोई तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। तुमको स्वयं ही शिक्षा लेनी होगी, तुम्हारी उन्नति तुम्हारे ही भीतर से होगी। बाह्य शिक्षा देने वाले क्या कर सकते हैं? वे ज्ञान लाभ की बाधाओं को थोड़ा दूर कर सकते हैं और वहीं उनका कर्त्तव्य समाप्त हो जाता है। इसीलिए यदि हो सके, तो सहायता करो, किंतु विनाश मत करो। तुम इस धारणा को त्याग दो कि ‘तुम’ किसी को आध्यात्मिक बना सकते हो। यह असंभव है। तुम्हारी आत्मा को छोड़ तुम्हारा और कोई शिक्षक नहीं है। यह स्वीकार करो, फिर देखो, क्या फल मिलता है। समाज में हम भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों को देखते हैं। संसार में सहस्रों प्रकार के मन और संस्कार के लोग विद्यमान हैं, उन सबका संपूर्ण सामान्यीकरण असंभव है, परंतु हमारे व्यावहारिक प्रयोजन के लिए उनको चार श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम, कर्मठ व्यक्ति, जो कर्मेच्छुक हैं। उनके नाड़ीतंत्र और मांसपेशियों में विपुल शक्ति है। उनका उद्देश्य है काम करना, अस्पताल तैयार करना, सत्कार्य करना, रास्ता बनाना, योजना स्थिर करके संघबद्ध होना। द्वितीय, भावुक, जो उदात्त और सुंदर को सर्वान्तःकरण से प्रेम करते हैं। वे सौंदर्य की चिंता करते हैं, प्रकृति के मनोरम दृश्यों का उपभोग करने के लिए और प्रेम करते हैं, प्रेममय भगवान की पूजा करने के लिए। वे विश्व के तमाम महापुरुषों और भगवान के अवतारों पर विश्वास करते हुए, सबकी सर्वान्तःकरण से पूजा करते हैं, प्रेम करते हैं। ईसा और बुद्ध यथार्थ थे या नहीं, इसके लिए प्रमाणों की वे परवाह ही नहीं करते। ईसा का दिया ‘शैलोपदेश’ कब प्रचारित हुआ था? अथवा श्रीकृष्ण ने कौन सी तारीख को जन्मग्रहण किया था? इसकी उन्हें चिंता नहीं। उनके निकट तो उनका व्यक्तित्व, उनकी मनोहर मूर्तियां ही सबसे बड़े आकर्षण हैं। यही प्रेमिक या भावुकों का आदर्श है, यही उनका स्वभाव है। तृतीय, योगमार्गी व्यक्ति, जो अपने मन का विश्लेषण करना और मनुष्य के मन की क्रियाओं को जानना चाहते हैं। मन में कौन-कौन शक्ति काम कर रही है और उन शक्तियों को पहचानने का या उनको परिचालित करने का अथवा उनको वशीभूत करने का क्या उपाय है? यही सब जानने को वे उत्सुक रहते हैं। चतुर्थ, दार्शनिक, जो प्रत्येक विषय की परीक्षा लेना चाहते हैं और अपनी बुद्धि के द्वारा मानवीय दर्शन से जहां तक जाना संभव है, उसके भी परे जाने की इच्छा रखते हैं। अब बात यह है कि यदि किसी धर्म को अधिकांश लोगों के लिए उपयोगी होना है, तो उसमें इन सब भिन्न-भिन्न वर्गों के लोगों के लिए उपयुक्त सामग्री जुटाने की क्षमता होनी चाहिए और जहां इस क्षमता का अभाव है, वहां सभी संप्रदाय एकदेशीय हो जाते हैं।