देश बंट रहा है !

अब तो भय लगता है। आशंकाएं पैदा होने लगी हैं। देश बंटता दिख रहा है, बिलकुल दोफाड़…! कश्मीर पर फिर अखाड़े सजने लगे हैं। दक्षिणपंथी कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा मानते हैं और वह है भी। शायद वामपंथी भी मानते होंगे, लेकिन वे घोषित करने को सहमत नहीं हैं। वे सरेआम कश्मीर की आजादी के पक्षधर हैं। यह मुहिम राष्ट्रविरोधी है, क्योंकि कश्मीर हमारा है और कश्मीर के जरिए अपनी संप्रभुता से समझौता नहीं किया जा सकता। कश्मीर की आजादी के नारे आतंकी, अलगाववादी और मुजाहिदीन समेत पाकिस्तान की हुकूमत और सियासत भी लगाती रही है। क्या भारत के भीतर एक पाकिस्तान भी घुसपैठ किए हुए है? यह नापाक और अवैध सेंध क्यों? कश्मीर और उसकी आजादी की आड़ में हमारे विश्वविद्यालयों और छात्रों को आपस में भिड़ाया जा रहा है। आखिर हासिल क्या होगा? स्थितियां दोफाड़ हैं, तो यह देश भी दोबारा बंट सकता है। हमारा भय, खौफ और संदेह बेबुनियाद नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज में एबीवीपी और आइसा (वाम छात्र संगठन) के बीच जो मारपीट, गाली-गलौज, आरोप-प्रत्यारोप और अश्लीलता के दौर चले हैं, उनसे देश पूरी तरह विभाजित लगता है। विश्वविद्यालयों में छात्र और छात्र संगठनों के स्तर पर वैचारिक और सैद्धांतिक प्रतिरोध, प्रतिवाद मौजूद रहा है। कमोबेश दिल्ली और जेएनयू तो इसकी मिसाल रहे हैं कि विरोध के बावजूद निजता कायम रही है। छात्र शालीन रहे हैं। उन्होंने कभी भी सहिष्णुता नहीं खोई। अब सब कुछ विपरीत हो रहा है। मुद्दा था-जेएनयू के आरोपी और देशद्रोह में जेल काट चुके छात्र नेता उमर खालिद। छात्रों के वामपंथी झुंड ने जेएनयू के प्रांगण में भी कश्मीर की आजादी के नारे लगाकर अराजकता फैलाई थी। दक्षिणपंथी विद्यार्थी परिषद के छात्र नहीं चाहते थे कि उमर खालिद का भाषण हो। जाहिर है कि टकराव स्वाभाविक था। उस अंधड़ में कारगिल के शहीद सैनिक मनदीप की बेटी गुरमेहर कौर और एबीवीपी सोच की प्रेरणा दोनों ही अश्लील हरकतों की शिकार हुईं, रेप की धमकियां दी गईं, जैसा कि उनका कहना है। इसी मुद्दे पर एक टीवी चैनल पर आयोजित बहस के दौरान विचारकों को सुना, तो साफ लगा कि देश बंट रहा है। एक-दूसरे पर तलवारें भांजते हुए…कश्मीर पर दोनों के विरोधाभास…वंदेमातरम् पर एक पक्ष की मुखरता और दूसरे की चुप्पी..अपने-अपने अंदाज में देशभक्ति और देशविरोध को परिभाषित करते हुए…किसी भी बिंदु पर नहीं लगा कि कोई राष्ट्रीय एकता है, हम एकजुट हैं, एक ही देश के नागरिक हैं और भारत हमारा देश है। सवाल है कि कश्मीर के मुद्दे पर वामपंथी नेता या एक्टिविस्ट भारत की संप्रभुता को स्वीकार क्यों नहीं करते? क्या कश्मीर की आजादी संप्रभुता से ज्यादा मूल्यवान है? क्या संसद में पारित उन प्रस्तावों और कानूनों को भी नजरअंदाज किया जा सकता है, जो समय-समय पर कश्मीर को लेकर संसद में साझा बहस के मुद्दे बनते रहे हैं? आखिर वामपंथी देशभक्ति और देशविरोध की परिभाषा क्या देते हैं, जरा उसका खुलासा तो करें। जिस वैचारिक पक्ष का अस्तित्व ही मुट्ठी भर बचा हो, वे शेष भारत को अपनी दलीलों पर सहमत कैसे कर सकते हैं? यह संविधान सम्मत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है, मातृभूमि का सरासर अपमान है, भारत में रहते हुए पाकपरस्त मानस की बानगी है यह। आखिर देशविरोधी अभिव्यक्तियां कब तक सहन की जाती रहेंगी? क्या देश को एक बार फिर बंटने का जोखिम उठाया जा सकता है? हमारे सवालों से कई इत्तफाक नहीं रखेंगे, लेकिन जो वैचारिक और राजनीतिक विभाजन स्पष्टतः दिखाई दे रहा है, वह बेहद भयावह और खतरनाक है…खूंरेजी की ओर भी धकेल रहा है।