भारत का इतिहास

मुस्लिम लीग के साथ ब्रिटिश सरकार  की सहानुभूति

पाकिस्तान के सैनिक शासकों ने एक पूरी जाति को नष्ट करने का प्रयास किया। इस्लाम की एकता के नारों को भूलकर, मुसलमानों ने मुसलमानों के साथ तरह-तरह के अमानुषिक, कुत्सित और वीभत्स अत्याचार किए। इन सबसे भी जब सैनिक तानाशाहों को शांति न मिली, तो दिसंबर, 1971 में एक बार फिर, चौथी बार भारत पर हमला कर दिया, जिसका भारतीय सेनाओं को समुचित उत्तर देना पड़ा। नतीजा हुआ पूर्वी बंगाल से आततायी शासन और उसके शोषण का अंत, द्विराष्ट्र सिद्धांत की अंत्येष्टि और एक स्वाधीन बांग्लादेश का अरुणोदय, किंतु जो लड़ाई भारत के सैनिकों ने 1971 में लड़ी और जिसमें हजारों नवयुवकों  ने वीरगति पाई, वस्तुतः वह 1947 में तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं द्वारा स्वीकार किए गए अभागे विभाजन की कहानी का ही अंग थी। अब भी अंतिम अध्याय लिखा जा चुका हो, ऐसा नहीं लगता। 1947 में स्वीकृत देश के विभाजन के लिए न जाने भारत की कितनी पीढि़यों को अभी कितनी भारी कीमत चुकाते रहना पड़ेगा। अगर उस समय नेता एक-दो वर्ष और प्रतीक्षा कर पाते तो संभवतः बांग्ला देश के नर-नारियों को जो कुछ असहनीय सहना पड़ा, न सहना पड़ता और भारत की एक नई पीढ़ी को जो लड़ाई लड़नी पड़ी, वह न लड़नी पड़ती। इस सबके बावजूद, इतिहास पर कोई भी कठोर निर्णय दे डालने से और तत्कालीन नेताओं ने जो कुछ किया उसके लिए आज उनकी भर्त्सना करने से पहले, यह उचित होगा कि हम अपने आपको उस समय में ले जाकर रखें तथा तब की परिस्थितियों  के परिपे्रक्ष्य में ही नेताओं द्वारा देश का विभाजन स्वीकार करने के औचित्य पर विचार-विवेचन करें। मार्च, 1947 में लार्ड माउंटबेटेन भारत आए और उन्होंने भारतीय नेताओं से बातचीत करनी शुरू की। पाकिस्तान की मांग के प्रति कांग्रेस के रुख में मार्च और जून 1947 के बीच परिवर्तन आया। देखना होगा कि इन दिनों देश की स्थिति क्या थी और कांग्रेस के नेताओं के सामने विकल्प क्या थे। (1) कांग्रेस और लीग में किसी तरह भी कोई समझौता नहीं हो पाया था, क्योंकि लीग पाकिस्तान की मांग से टस से मस होने को तैयार नहीं थी। (2) देश सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका में जल रहा था, हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे के रक्त में होली खेल रहे थे, संपत्ति, महिलाओं का सम्मान, मासूम बच्चों की जान कुछ भी सुरक्षित न था, अराजकता का साम्राज्य था। नेताओं को लगा कि निर्दोष देशवासियों की हत्याएं होती रहें इससे तो पाकिस्तान बन जाना अच्छा था। (3) अंगे्रज अफसरों और ब्रिटिश सरकार की  सहानुभूति लीग के साथ थी।