मोदी के खौफ में विपक्ष !

अभी तो राजतिलक के रंग सूखे भी नहीं हैं। अभी तो उत्तर प्रदेश के ‘योगी मुख्यमंत्री’ ने कई भ्रम और धारणाएं तोड़ी हैं। अभी तो बूचड़खानों के अवैध कारोबार के ढक्कन बंद किए गए हैं और पुलिस को आम नागरिक की सुरक्षा के सबक पढ़ाए जा रहे हैं। अभी तो प्रधानमंत्री मोदी के कई संकल्प अधूरे हैं। अयोध्या में राममंदिर बनना है और मुसलमानों में ‘तीन तलाक’ कानूनन समाप्त होना है। अभी तो देश के बुनियादी ढांचे को विस्तार दिया जाना है। लिहाजा अभी से लोकसभा के मध्यावधि चुनावों की कोई तुक नहीं है, तो इस पर माथापच्ची भी क्यों शुरू की जाए? लेकिन स्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। लालू यादव सरीखे मसखरे और भ्रष्ट नेता के बयान पर कौन यकीन करेगा? चारा घोटाले में कभी भी अदालत उन्हें ‘अंदर’ भेज सकती है! सवाल यह भी है कि क्या उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती उस बयान के मद्देनजर गठबंधन में साथ-साथ आ सकते हैं? व्याख्याएं की जा रही हैं कि बिहार के महागठबंधन की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन हो जाए, तो मोदी की भाजपा को पराजित किया जा सकता है। लेकिन ध्यान रहे कि राजनीति में दो दूनी चार नहीं होते, सौ लंगड़े मिलकर भी एक पहलवान नहीं बन सकते। सियासत में गणित के साथ-साथ केमिस्ट्री भी बेहद जरूरी है। बेशक बिहार में नीतीश और लालू एक दौर में कट्टर विरोधी नेता रहे हैं, लेकिन दोनों ही आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की पैदाइश हैं, लिहाजा दोनों के बीच एक खास तरह का सौहार्द, जुड़ाव, साझापन रहा है। दोनों ही नेता विभिन्न मुद्दों पर विमर्श करते रहे हैं। इतना ही नहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव में जब लालू की पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती दोनों ही हार गईं, तो नीतीश ने खुद लालू को फोन किया था और दिलासा के शब्द कहे थे। दरअसल लालू-नीतीश के दरमियान लगातार संवाद जारी रहा है, जो मुलायम सिंह और मायावती में संभव ही नहीं था। अखिलेश के साथ भी मायावती विनम्र नहीं हुई हैं। शायद जून, 1993 में मायावती की अस्मत और अस्तित्व पर सपा के गुंडों ने जो हमला किया था, मायावती के लिए उसे भूलकर राजनीतिक गठबंधन में आना इतना आसान नहीं है! मायावती कांग्रेस और भाजपा के साथ गठबंधन बना चुकी हैं और 1993 के हमले से पहले सपा-बसपा की उत्तर प्रदेश में गठबंधन सरकार थी। वह प्रयोग बसपा के संस्थापक कांशी राम और सपा के संस्थापक मुलायम सिंह ने मिलकर किया था।

अब मौजूदा हालात में लालू यादव की भविष्यवाणी सामने आई है कि प्रधानमंत्री मोदी 2018 में ही लोकसभा चुनाव वक्त से पहले घोषित कर सकते हैं! लिहाजा उन चुनावों का मुकाबला करने के मद्देनजर बिहार की तर्ज पर महागठबंधन बनाने की शुरुआत कर देनी चाहिए। महागठबंधन की बात वरिष्ठ कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने भी की है। फिलहाल तो कांग्रेस चुनावी पराजय के बाद हताश है। अभी तो यह विमर्श बाकी है कि आखिर देश भर में चुनावी हार के सिलसिलों को कैसे रोका जाए। पंजाब की जीत कैप्टन अमरेंदर सिंह की निजी जीत है। उसमें कांग्रेस या राहुल गांधी का कोई योगदान नहीं है। लिहाजा महागठबंधन पर कांग्रेस ने अभी निर्णय लेना है। दरअसल हमारे देश में गठबंधन हुए हैं, सत्ताएं हासिल की गई हैं, लेकिन बहुत जल्दी बिखरने का इतिहास रहा है। अंतर यह हुआ है कि पहले कांग्रेस के बाहरी समर्थन से गठबंधन सरकारें बना सकती थीं, लेकिन आज कांग्रेस खुद ही एक छोटा सा घटक है और गठबंधन भाजपा के खिलाफ बन रहे हैं। 2004 में तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने करीब छह माह पहले ही लोकसभा चुनाव कराए थे, लेकिन एनडीए की हार हुई और कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए बना। अब प्रधानमंत्री मोदी 2018 में ही मध्यावधि चुनाव क्यों कराएंगे? दरअसल जो जनादेश उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिला है, उसकी लहर पर अन्य राज्यों में चुनावी हवा बदली जा सकती है, लेकिन उसकी कसौटी पर लोकसभा चुनाव संभव नहीं हैं। मोदी सरकार को अभी कई लक्ष्य पूरे करने हैं। यदि उन्हें निभाया नहीं गया, तो जनता उन्हें भी नकार सकती है। देश में विपक्ष फिलहाल पस्त है और कांग्रेस एक के बाद एक राज्यों में सत्ता गंवाती जा रही है। फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की निगाहें कर्नाटक और ओडिशा पर हैं। उन पर ‘भगवा ध्वज’ फहराने के बाद अपनी किलेबंदी को सुरक्षित रखना है। उसी के बाद लोकसभा चुनाव में उतरा जाएगा। लालू यादव का क्या है? उनकी आदत ही बकने की है। भाजपा में उन्हें कोई भी गंभीरता से नहीं लेता। बिहार में बुनियादी रणनीति तो यह है कि नीतीश कुमार को लालू से अलग कराया जाए और जद-यू के साथ भाजपा का पुराना गठबंधन बने। लालू-नीतीश के बीच की दरारें दिखने भी लगी हैं।