राजनेता बड़ा सोचें

कुंडलियों से बाहर निकलकर भी तो राजनीति सफल हो सकती है, लेकिन संकीर्णता के बाहुपाश में अधिकांश हिमाचली नेता फंसे हैं। क्षेत्रवाद की अवधारणा यहां की आर्थिक खुशहाली, विकास के असंतुलन या बेरोजगारी की वजह से नहीं निकली, बल्कि राजनीतिक सोच की संकीर्णता में यह हथियार की मानिंद काम आती है। यह असुरक्षित मानसिक पटल पर नेतृत्व की पहचान में सिमट गई और योग्य-अयोग्य नेताओं के बीच अंतर भी शून्य होता गया। ऐसे में घाटे में रहा हिमाचल का विजन या जिन नेताओं ने प्रदेश के विजन को विस्तृत करके लिखना चाहा, उन पर हर तरह का प्रहार हुआ। यही मानसिक संकीर्णता प्रदेश सरकारों को भी किसी क्षेत्र विशेष, समुदाय या वर्ग के आगे झुकाती रही या कमजोर करती रही। बेशक हर मुख्यमंत्री ने अपने विजन की परिपाटी को संजीदगी से लिखने की कोशिश की, लेकिन प्रशासनिक तरीकों में भी समुदाय आड़े आया। सेब लॉबी इसी अभिप्राय से अपने नेताओं को सशक्त करती रही और शेष प्रदेश को लगा कि शिमला सचिवालय उनका प्रतिनिधित्व नहीं करता। सेब बनाम शांता सरकार के बीच इसी संकीर्णता का घातक अंजाम था, तो अब सचिवालय की नियुक्तियों में भाजपा जो चुन रही है, उससे पुनः क्षेत्रीय संकीर्णता में हिमाचल का अस्तित्व नजर आएगा। सेब के अलावा अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण मसले पर नाव अगर दौड़ी, तो उस पर संकीर्णता सवार थी और अपने गंतव्य को राजनीतिक अभयारण्य में बदल कर बिखर गई। यही संकीर्णता प्रदेश की कार्य संस्कृति को निकम्मा बना चुकी है। बार-बार कर्मचारी वर्ग की चाकरी में राजनीति ने पाया कम, खोया अधिक, फिर भी सरकारी खजाने पर हिमाचल की यही सोच हावी रही। यह दौर हर सरकार की प्राथमिकता बनकर आया, लेकिन कर्मचारी वर्ग का असंतोष अटल रहा। क्या नेताओं में इतना दम है कि कर्मचारी सियासत से उत्पन्न संकीर्णता से बाहर निकलकर इस वर्ग के बजाय, निजी क्षेत्र के कर्मचारी को सम्मान दें। सरकार से कहीं अधिक, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कर्मचारी निजी क्षेत्र में हैं और ये अपनी मेहनत से हिमाचल को सुदृढ़ बनाते हैं, लेकिन नेताओं के दायरे में यह कोई समुदाय नहीं। किसी भी सियासी या सदन की बहस में गैर सरकारी पक्ष के योगदान का समर्थन नहीं हुआ। लिहाजा नेताओं के जज्बात को सरकारी कार्य संस्कृति चुरा लेती है बार-बार। आश्चर्य यह भी कि खुद नेता भी सरकारी कार्यालयों की फौज के आगे झूठे या कोरे साबित होते हैं, फिर भी संकीर्णता की नकेल के आगे कड़े फैसलों की कलम तैयार नहीं कर पाते और न ही स्थानांतरण के ठोस नियम या नीति बना पाते हैं। ये तमाम वर्ग अपनी-अपनी सियासत के आखेट में नेताओं को धक्का देते हैं या पूरी तरह  गिरा देते हैं, लेकिन राजनीतिक समझ का तकाजा संकीर्णता को एक अलग वाद की तरह अपनाता रहता है। हम विकास को जिन सपनों से जोड़ना चाहते हैं, वे अधिकतर संकीर्णतावादी रुख का परिचय ही तो हैं। मात्र पांच किलोमीटर के फासले पर सीनियर सेकेंडरी स्कूल खोलने की वजह न विकास और न ही शैक्षणिक गुणवत्ता है, लेकिन राजनीतिक अखाड़ों की संकीर्णता ने सामान्य सोच की दहलीज भी उखाड़ दी। आज प्रश्न उस चौराहे पर उठ रहे, जहां से नेताओं की टोलियां अपनी दिशा से भ्रमित हैं। आश्चर्य यह कि संकीर्णता के कुंभ में नहाकर भी नेता प्रसन्न हैं और कोई यह पूछता भी नहीं कि क्या हिमाचल के नसीब यूं ही रहेंगे। राजनीति उपहार देती है या उपकार करती है, लेकिन लाभ के रास्तों पर चयन की संकीर्णता में पिट्ठू पैदा हो रहे हैं। विडंबना भी यही कि नेताओं के कच्चे कानों में विशाल हिमाचल की आवाज नहीं आती और वे अपनी जमात बनाने की कोशिशों में संकीर्ण मुकाम पर कभी औलाद को आगे बढ़ाते हैं, तो कभी चंद लोगों के दायरे में अपने अंक बढ़ाने का भ्रम पालते हैं। प्रदेश को आगे ले जाने के लिए नेताओं को अपने खौफ से प्रतिस्पर्धा करनी होगी और अहम फैसलों को भी सामान्य बनाने की सहजता सीखनी होगी। एम्स, आईआईएम या केंद्रीय विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों को रोक कर बैठी राजनीति या हर कालेज को स्नातकोत्तर बनाने की अभिलाषा के पीछे खड़ी संकीर्णता को नजरअंदाज न किया, तो विकास के आंसू किसी रहट की तरह बहेंगे।