लोक कलाओं पर पत्थरबाजी

हर साल हिमाचल अपनी तारीख-तारीफ ढूंढता है और जब वर्ष समाधि लेता है तो हम अपनी हसरतों के बावजूद हकीकत के लम्हे दफन कर देते हैं। एक प्रगतिशील राज्य की तस्वीर के बावजूद, क्षमता और संभावना के हर क्षेत्र में रिसाव को समझने की चुनौती है। क्या राज्य अब एक पटकथा बनकर तरक्की करेगा या अगले चरण की गवाही में सोच का दायरा बढ़ाएगा। उदाहरण के लिए हिमाचल में सांस्कृतिक समारोहों की होड़ में संभावना की जगह बची ही कहां है। दर्जनों मेले, सांस्कृतिक, धार्मिक व पारंपरिक समारोह केवल एक साल के गवाह बन कर गुजर जाते हैं। न पिछले साल से आगे और न अगले साल से पहले, कुछ अंतर आता है। यह दीगर है कि इनका आकार निरंतर बड़ा हो रहा है और नेताओं के प्रभाव से सीना फूल रहा है। यह अच्छी बात है कि गांव-गांव में दशहरा महोत्सव हो, लेकिन इन्हें कुल्लू की जमात बना देने से हम समारोहों को सियासत की चरागाह तो न बनाएं। अगर होली की प्रतिष्ठा में सुजानपुर का मैदान संवरता है, तो इस शान की चोरी में जगह-जगह महफिलें न सजा दें। आश्चर्य यह कि बड़े समारोहों के निमंत्रण पत्रों के मार्फत पर्यटक को बुलाने के बजाय सियासत के शामियानों के नीचे सारी रौनक ही विश्राम करती है और तब गीत-संगीत की महफिल भी वास्तविक कलाकार व हिमाचली संदर्भों से दूर हो जाती है। क्या हम इन समारोहों की पीठ पर बाहरी कलाकारों को ढोकर धन्य  हो जाएंगे या बाहरी राज्यों से पर्यटकों को बुलाकर हिमाचली कलाओं और कलाकार से मिलन कराएंगे। आखिर मनोरंजन के नाम पर हम बाहरी संगीत को तरजीह देने के लिए मेहनत करते हैं या ये समारोह हिमाचली पक्ष का कभी सांस्कृतिक झरोखा बनेंगे। देश के अन्य राज्यों ने अगर समारोहों की विशिष्टता में खुद को तराशा तो वहां के कलाकार, लोकगायक, लोक थियेटर, स्थानीय उत्पाद और खान-पान को बढ़ावा मिला, लेकिन हिमाचल में राजनीतिक छाती पीट-पीट कर अगर कोई लहूलुहान हुआ तो वह अपना कोई गायक या कलाकार ही रहा होगा। विडंबना यह भी कि समारोहों का निर्धारण न तो किसी औचित्य पर टिका है और न ही इन्हें औचित्यपूर्ण बनाने के लिए कोई पारदर्शी व्यवस्था बनाई गई। राजनीतिक इच्छा के मंच पर लोक कलाकारों पर जिस कद्र उपेक्षा की पत्थरबाजी होती है, उससे हिमाचल की गरिमा को ही आंच पहुंच रही है। प्रशासनिक जिम्मेदारियों के सांस्कृतिक समारोहों का निष्कर्ष यह कि यहां भी हुक्म और हुकूमत की बदौलत मनोरंजन भी एक सियासी अखाड़ा बन गया, वरना हिमाचल की ये खूबियां पर्यटन की अमानत बन चुकी होतीं। क्यों नहीं हम इन्हें कला त्योहारों, सांस्कृतिक मेलों या फूड फेस्टिवल के नजरिए से पूरी तरह विकसित करने की एक परिपाटी बनाएं। हिमाचल में एक मेला प्राधिकरण के गठन से पारंपरिक मेलों और सांस्कृतिक समारोहों के अलावा पर्यटन मेलों की रूपरेखा ही नहीं, बल्कि इनके आयोजन स्थलों पर माकूल अधोसंरचना का निर्माण भी संभव करना होगा। पारंपरिक मेलों के आकार में विस्तार के अलावा प्रशंसकों व दर्शकों की अपेक्षाएं भी बढ़ी हैं। ऐसे में हर गांव से शहर तक मेला या सार्वजनिक मैदानों का विकास भी अब समय की जरूरत है। प्रदेश में पर्यटन की दृष्टि से समारोहों  का कला मंच अगर ऊंचा करना है, तो वहां केवल हिमाचली परिदृश्य की जय जयकार करनी होगी, वरना सियासी आखेट में कला और कलाकार दोनों की हानि ही निश्चित है।