विकास करने वाली पार्टी की तलाश

प्रो. एनके सिंह

( प्रो. एनके सिंह लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं )

आज भी कोई ऐसा दल नजर नहीं आता, जो उदारवादी और साफ-सुथरी व्यवस्था की कामना करने वाले लोगों को आकर्षित करे। ये लोग आज भी एक ऐसे दल की तलाश में हैं, जो घोटालों और भ्रष्टाचार से दूर रह सके। मैं अब तक समझ नहीं पाया कि मेरे आदर्शों और मूल्यों के सांचे में कौन सी पार्टी फिट बैठती है, क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जिसका एजेंडा स्पष्ट हो। न तो इनके राष्ट्रीय उद्देश्य स्पष्ट हैं और न ही ये सबके लिए समानता के सिद्धांत का व्यावहारिक तौर पर पालन करते हैं…

हर राजनीतिक दल दावा करता है कि विकास ही उसका एजेंडा है। इसके बावजूद जब कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक दल में शामिल होने या उसे समर्थन देने का मन बनाता है, तो उसे नए सिरे से तफतीश करनी पड़ती है कि आखिर कौन सा दल विकास आधारित एजेंडे के साथ-साथ न्याय और पारदर्शिता सुनिश्चित करता है। यह चयन तब और भी जटिल और संकीर्ण हो जाता है, जब उसे कोई ऐसा दल नजर नहीं आता, जिसके साथ वह बिना खुद के विचारवाद से समझौता किए जुड़ सके। एक ऐसा भी दौर था, जब यह चयन बेहद सरल था। उस दौरान इस तरह के चयन को लेकर कोई धर्मसंकट नहीं होता था। जब हम स्कूल में थे, उन दिनों हम कांग्रेस के पक्ष में थे, क्योंकि कांग्रेस तब स्वतंत्रता आंदोलन के लिए लड़ाई लड़ रही थी। सुभाष चंद्र बोस या भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारी हमारे नायक थे, लेकिन एक दल के तौर पर हम कांग्रेस को ही समर्थन करते थे। कम्युनिस्ट बनने के अलावा तब कोई दूसरा चारा नहीं हुआ करता था। मैं भी कुछ हद तक इस विचार से प्रभावित था, लेकिन मेरी रुचि लंबे वक्त तक इसमें जम नहीं पाई। इससे भी बढ़कर हमने इसलिए कांग्रेस पार्टी को चुना, क्योंकि हमारा परिवार भी इसी का समर्थक था। आज चीजें बहुत तेजी से बदलती हुई प्रतीत हो रही हैं। वर्तमान में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बच्चों का जिस तरह का आचरण देखने को मिल रहा है, उनके मां-बाप ने कभी इसकी कल्पना भी नहीं की होगी। बेशक आज यह सब करते हुए वे इस मुगालते में जी रहें होंगे कि वे बड़ी हिम्मत का काम कर रहे हैं, लेकिन शायद उन्हें इस बात का एहसास नहीं कि उन्हें कुछ लोगों द्वारा गुमराह किया जा रहा है और इस कारण वे राष्ट्रीय हितों से कटते जा रहे हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व समाज सेवा और राष्ट्रीय हित में विचारों को गढ़ने का एक अनूठा योगदान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का रहा, जो उस समय विद्यार्थियों को एक महत्त्वपूर्ण मंच प्रदान करता था। इसकी शाखा में खेलें करवाने के साथ-साथ राष्ट्रीय शिक्षाएं और अतीत व वर्तमान के भारत मां के वीर सपूतों की कहानियां सुनाई जाती थीं। बेशक इसमें हल्का सा धर्म का पुट भी रहता था, इसके बावजूद यह एक बड़ा सामाजिक संगठन था। संगठन के बौद्धिकों में इसके कार्यकर्ताओं को हिंदुत्व और खुद की रक्षा के तौर-तरीके सिखाए जाते थे। इस प्रकार इसमें उत्कृष्ट व वैभवपूर्ण गतिविधियां करवाई जाती थीं और इसमें कुछ गलत भी नहीं था। हम सब भी संघ की शाखा में जाया करते थे और बड़े ही चाव से इसकी प्रार्थना भी गाया करते थे। महात्मा गांधी की हत्या के बाद जब कथित आरोपों के आधार पर आरएसएस पर प्र्रतिबंध चस्पां कर दिया गया, तो हमारी भी नित्य शाखा जाने की आदत कहीं पीछे छूट गई। हालांकि महात्मा जी के निधन के बाद संघ को कई ऐसे लोगों की प्रतिक्रियाएं भी झेलनी पड़ीं, जो पहले इसकी विचारधारा को मानते थे। लोग तब कांग्रेस पार्टी के पक्ष में खड़ा होना ही सही मानते थे, जिसमें वल्लभ भाई पटेल, नेहरू और मौलाना आजाद सरीखे करिश्माई नेता शामिल थे। मेरे पिताजी भी कांग्रेस के एक सक्रिय कार्यकर्ता हुआ करते थे, लेकिन एक फर्जी सदस्यता अभियान के विरोध में उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया। स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में उन्हें भी कई विपरीत अनुभवों में से गुजरना पड़ा। जब 1942 में उन्होंने कांग्रेस का झंडा फहराया था, तो उन्हें पुलिस की यातनाओं को झेलना पड़ा था। इसके बावजूद ईमानदारी और सत्य मार्ग जैसे सनातन मूल्यों में उनकी गहन आस्था बनी रही, लेकिन दुनिया तेजी से बदल रही थी।

मैंने भारत सरकार के लिए लंबे अरसे तक काम किया। इस दौरान मुझे देश के मौजूदा राष्ट्रपति समेत कई कद्दावर कांग्रेस नेताओं के साथ काम करने का सौभाग्य नसीब हुआ। कांग्रेस के साथ हमारा यह जुड़ाव लाजिमी था, क्योंकि सिर्फ कांग्रेस में ही इस तरह के नामवर नेता शामिल थे। हालांकि स्वतंत्रता संग्राम या पूर्व समय में जो बलिदान इस पार्टी में रहते हुए लोगों ने दिए, उसके उलट धीरे-धीरे कांग्रेस में मूल्यों का पतन होना शुरू हो गया। सत्ता ने तंत्र को भ्रष्ट करना शुरू कर दिया और राजनीतिक वातारण दूषित होता गया। अंततः मूल्यों एवं आदर्शों में गिरावट के सिलसिले ने इसे रसातल तक पहुंचा दिया और यही वजह थी कि यूपीए-दो के कार्यकाल में एक के बाद एक न जाने कितने ही घोटाले हो गए। इस माहौल में मेरे दोस्त एक ऐसी आशा की किरण का इंतजार करने लगे, जो इस पूरे परिदृश्य को बदल देती। कमोबेश मैं भी इस तरह के बदलाव के इंतजार में था। अन्ना हजारे ने इस संदर्भ में परिवर्तन की उम्मीदें जगाईं, लेकिन इस बुजुर्ग व्यक्ति को अथक मेहनत और सार्थक उद्देश्य के बावजूद अंततः हार माननी पड़ी। फिर भी उन्होंने सोई हुई राष्ट्रीय चेतना को जगा दिया। इसके बाद एक उल्लेखनीय बदलाव के रूप में नरेंद्र मोदी का उभार हुआ, जो मध्यमार्गी दक्षिणपंथ की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके साथ पारदर्शिता और विकास की छवि भी जुड़ी हुई है। नरेंद्र मोदी ने पार्टी का एजेंडा मंदिर की राजनीति से हटाकर ‘सबका साथ, सबका विकास’ निर्धारित दिया। वह एक जादूई आंदोलन था, जिसने देश की राजनीति की दशा व दिशा बदलकर रख दी। हताशा और निराशा से भरे लोगों को मोदी में उम्मीद की एक नई किरण दिखने लगी। वह न केवल चुनाव जीते, बल्कि देश की जनता ने उनका बढ़-चढ़कर समर्थन भी किया। निस्संदेह वह एक विशाल जनसमूह के नेता हैं और अपने देश को प्रगति के मार्ग पर बढ़ाने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। लेकिन उनकी पार्टी का समर्थन कैसे किया जाए, जिसमें आज भी कई रुढि़वादी विचारधारा वाले लोग मौजूद हैं।

इसके अलावा आम आदमी पार्टी का भी उदय हुआ और लोगों में एक बार फिर से ईमानदार दिनों की आस जगी। लेकिन इस मर्तबा भी बड़ी निराशा हाथ लगी और यह पार्टी भी सत्ता हासिल करने की चाह में उन्हीं तौर-तरीकों को आजमाने लगी, जिन्हें अब तक दूसरी पार्टियां अपनाती आई थीं। इस प्रकार यह पार्टी भी देश में स्थान बना पाने में विफल रही। पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने कई झूठे वादे किए और निचले दर्जे के कदम उठाए, जो लंबे समय तक नहीं चल सके। अंततः आज भी कोई ऐसा दल नजर नहीं आता, जो उदारवादी और साफ-सुथरी व्यवस्था की कामना करने वाले लोगों को आकर्षित करे। ये लोग आज भी एक ऐसे दल की तलाश में हैं, जो घोटालों और भ्रष्टाचार से दूर रह सके। मैं अब तक समझ नहीं पाया कि मेरे आदर्शों और मूल्यों के सांचे में कौन सी पार्टी फिट बैठती है, क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जिसका एजेंडा स्पष्ट हो। न तो इनके राष्ट्रीय उद्देश्य स्पष्ट हैं और न ही ये सबके लिए समानता के सिद्धांत का व्यावहारिक तौर पर पालन करते हैं। कारगिल के युद्ध में प्रतिष्ठित भारतीय सेना का हिस्सा रहने वाले मेरे बेटे ने इस संदेश के साथ देश को छोड़ दिया था, ‘देश लड़खड़ा रहा है। मुझे आशा है कि मोदी सत्ता में आकर इसे संभाल लेंगे।’ यह 2014 के चुनावों से पहले की बात है। अब वह कनाडा का नागरिक है। इसीलिए मोदी पूरे देश की एकमात्र उम्मीद हैं, लेकिन उनकी या कोई दूसरी पार्टी अब तक इस रिक्तता को नहीं भर पाई है।

 बस स्टैंड

पहला यात्री – बहुत सारे युवा अपनी छोटी-मोटी नौकरी को छोड़कर बाली के घर की ओर क्यों दौड़ रहे हैं?

दूसरा यात्री – वे सब बेरोजगार भत्ते का इंतजार कर रहे हैं।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com