व्यवस्था के टूटे पिंजरे

दो घटनाओं के बीच यह अंतर करना आसान नहीं कि कौन कितनी घातक है। गोपालपुर के चिडि़याघर से तीन तेंदुओं के चुपचाप निकल जाने से यह तो साबित है कि हिमाचल में व्यवस्था के पिंजरे बुरी तरह टूट चुके हैं। दूसरी ओर पता नहीं किन कारणों से प्रभावित होकर हिमाचल स्कूल शिक्षा बोर्ड चिडि़याघर जैसा बनता जा रहा है। किन्नौर के एक स्कूल से प्रश्न पत्र चोरी क्या हुए, व्यवस्था के हाथ इस तरह कांप गए कि चंबा और शिमला के परीक्षा केंद्रों में गलत प्रश्न पत्र बांटने का मामला प्रकाश में आ गया। गोपालपुर चिडि़याघर से तो वाकई तीन तेंदुए ही भागे होंगे, लेकिन सरकारी खाल के भीतर न जाने कितने तेंदुए हर पल कामकाज से भाग रहे हैं। इन सारे मामलों में एक बात सामान्य रूप से हिमाचल की कार्य संस्कृति की ओर इशारा कर रही है। तेंदुओं का भागना, परीक्षा प्रश्न पत्रों की चोरी होने जैसा क्यों प्रतीत हो रहा है। दोनों ही प्रकरण अपने-अपने हिसाब की संवेदनशीलता से जुड़े हैं। खूंखार तेंदुओं के बाड़े का जाला इतना कमजोर कैसे हो गया कि एक रात टहलते हुए ये वन्य प्राणी बाहर निकल गए या परीक्षा केंद्र की चोरी में किसका हाथ लंबा रहा कि प्रश्न पत्रों की भी हत्या हो गई। बदनसीब छात्र समुदाय, परीक्षा भवन या वह प्रमाण पत्र, जिसके इंतजार में गलत प्रश्न पत्र बंटते हैं या लूट लिए जाते हैं। इन तमाम गलतियों का हर्जाना कौन चुकाएगा। स्कूल शिक्षा बोर्ड या दूसरी ओर चिडि़याघर। कमाल यह कि चिडि़याघर से भागे तेंदुओं ने जनता को परीक्षा में डाल दिया और इधर स्कूली परीक्षाओं की बदइंतजामी ने एक पूरे बोर्ड को चिडि़याघर बना दिया। जिस युवा पीढ़ी के निर्माण की बातें कमोबेश हर मंच से होती हैं, उसके साथ जुड़े मसलों की एक बानगी वार्षिक परीक्षाएं हैं और जिन्हें बार-बार अध्यापकों के बहिष्कार की धमकियां मिलती हैं। परीक्षाओं के चंगुल में शिक्षा की बदहाली केवल स्कूल तक नहीं, बल्कि कालेज स्तर पर भी यह कसरत जारी है। रूसा के तहत शिक्षा की औपचारिकताएं एक तरफ और दूसरी ओर नए कालेजों के खुलने की खबर पर जश्न मनाती शिक्षा पद्धति। लाचार, बेबस और दिशाहीन शिक्षा के कितने ही स्तंभ हाजिर हैं और जब इसे प्रमाणित करने की शर्त पैदा होती है, तो प्रश्न पत्र भी चोरी की एक वस्तु के अलावा कुछ भी प्रतीत नहीं होता। शिक्षा अगर बदलती अपेक्षाओं के पहरावे जैसी होगी, तो इस फैशन परेड में नैतिकता के विषय को न छात्र समझेगा और न ही शिक्षक वर्ग इसे प्रमाणित करेगा। हम कुछ दिनों में इसे एक बुरा किस्सा मानकर चुप हो जाएंगे और प्रयास करेंगे कि किस तरह अपनी औलाद को सफल बनाने में परीक्षा केंद्र में व्याप्त नकल वरदान बन जाए। इसलिए गांव का स्कूल केवल शिक्षा के लिए नहीं खुलता, बल्कि राजनीतिक इच्छा की चाकरी में ऐसे मुखिया को खोजता है जो परीक्षाओं की जटिलता को सरल बनाए और बच्चे किताबी कीड़े नहीं, नकल के अवतार बन जाएं। शिक्षा के जरिए समाज में नैतिकता के आदर्श अगर स्थापित होते थे, तो इस परिभाषा का चरित्र स्वयं अध्यापक होता था, लेकिन अब शिक्षक अपनी सफलता को परीक्षा परिणाम की ऐच्छिक नकल से जोड़कर देखता है। ऐसे में सवाल फिर शिक्षा पद्धति को चिडि़याघर बनाने तक होता है और जहां हर दिन आचरण के पिंजरे टूटते हैं। दूसरी ओर जीवन के मूल्यों में आ रही गिरावट को देखने के लिए गोपालपुर का चिडि़याघर भी एक उदाहरण बन जाता है। तेंदुओं के बाड़े में हाथ डालने वालों के लिए मानवीय पिंजरों की कीमत क्या होगी। सेंध हमारे चरित्र की हर बुनियाद को न जाने कहां तक खोखला कर देगी। चिडि़याघर भी अगर चोरी का सामान बन जाए, तो व्यवस्था को किस जंगल में देखेंगे। हैरानी यह कि इतना सब होने के बावजूद प्रदेश तरक्की कर रहा है और विकास के मानदंड भी प्रगति पर हैं। तेंदुओं की न बाड़े के भीतर नस्ल बदली और न ही बाहर निकलकर, लेकिन सरकारी नौकरी में घुसकर नागरिक जाति और प्रजाति बदल रही है। इसीलिए जब कोई न्यायाधीश रिश्वत लेते नजर आता है, तो कानून की आंखों से भी पट्टी सरक जाती होगी। हर दिन कानून के पिंजरे के बाहर, हिमाचल भी कई कसूरवार चेहरों को खुद में समाहित कर चुका होता है। भागे हुए तेंदुए तो मिल गए और उन्हें फिर पिंजरों के भीतर बंद कर दिया, लेकिन सरकारी खाल के भीतर सुरक्षित ‘तेंदुओं’ को हम चाहकर भी नहीं भगा पा रहे हैं।