समकालीन साहित्य से वास्ता रखने वाले शिक्षक साहित्य में कम ही हैं

निरंजन देव

साहित्य के अध्ययन-अध्यापन तथा साहित्य से पाठक की दूरी जैसे सवाल तब और भी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, जब हम उन्हें साहित्य शिक्षण की शीर्ष संस्था हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से जोड़ कर देखते हैं । पाठ्यक्रम में हिंदी साहित्य से हमारा पहला परिचय छात्र जीवन के शुरुआती दौर में ही हो जाता है । प्रेमचंद की दो बैलों की कथा , ईदगाह और पंच परमेश्वर जैसी कहानियां बाल मन की संवेदनाओं से तारतम्य बैठा लेती हैं और कबीर के दोहे सामाजिक आडंबरों के प्रति मन में विद्रोह के भाव पैदा करते हैं। फिर दौर शुरू होता है, परीक्षा पर आधारित प्रश्नों तथा सप्रसंग व्याख्याओं का। अपवादों को छोड़ कर यह ढांचा इतना घिसा -पिटा और रटा-रटाया होता है कि एक स्वाभाविक बाल पाठक के मन में साहित्य के प्रति अरुचि के भाव पैदा कर देता है। साहित्य के ऐसे अध्यापकों की गिनती आप अंगुलियों पर ही कर सकते हैं, जिनका वास्ता समकालीन साहित्य से या फिर हिमाचल के लेखकों द्वारा लिखे जाने वाले साहित्य से होता है । … फिर चाहे वह हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय ही क्यों न हों, इन संस्थानों में अध्यापन का उद्देश्य पाठ्यक्रम पढ़ना -पढ़ाना ही अधिक रहता है। पाठ्यक्रम में शामिल रचनाकार की अन्य रचनाओं को लेकर छात्रों में चर्चा करने तथा साहित्यिक अभिरुचि पैदा करने का भाव कम ही रहता है। समकालीन साहित्य की पत्रिकाओं को पढ़ना और उनमें प्रकाशित हिमाचल के लेखकों की रचनाओं पर चर्चा तो कोसों दूर की बात है । ऐसे उदाहरण अपवाद की तरह ही हैं जब  हिमाचल के प्रखर रचनाकारों को विश्वविद्यालयों या महाविद्यालयों में चर्चा के लिए आमंत्रित किया गया हो और आमंत्रित किए जाने से पहले उनकी रचनाएं छात्रों को मुहैया करवाई गई  हों। जिस दिन साहित्यिक चर्चाओं को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाएगा, चीजें खुद-ब-ख़ुद बदलनी शुरू हो जाएंगी। समकालीन साहित्य पर सेमिनार और टर्म पेपर बाकायदा उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। यह लेखक से आमने-सामने चर्चा पाठक की जिज्ञासा  का समाधान संभव बना सकेगी और संवेदनशील पाठक के अंदर के लेखक को भी प्रोत्साहित कर पाएगी। छात्र हिमाचल के लेखकों की रचनाओं का समकालीन साहित्य से तुलनात्मक अध्ययन कर पाएंगे। बंधे-बंधाए समीक्षा के ढांचे से उबर कर छात्रों में रचनात्मक आलोचना का स्वाभाविक विकास होगा और वे अध्यापक की दृष्टि से अलग अपनी स्वयं की दृष्टि विकसित कर पाएंगे। अध्यापकों -प्राध्यापकों के लिए यह स्थिति किसी उपलब्धि से कम नहीं होगी । मसला परिपाटी को तोड़ने का है , छात्रों के मन को टटोलने का है । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से आयोजित किए जाने वाले आयोजनों का ढांचा तोड़े बिना बर्फ नहीं पिघलेगी । इन आयोजनों में मुख्य वक्ताओं से ज्यादा जरूरत छात्रों की सक्रिय भागीदारी की है। छात्रों को महज श्रोता बना देने से बात नहीं बनने वाली, उनमें तर्क शक्ति का विकास करने में अध्यापकों को माध्यम की भूमिका निभानी होगी ताकि समकालीन साहित्य तथा उसमें हिमाचल की स्थिति का तटस्थ मूल्यांकन छात्र कर सकें। जितना ज्यादा समकालीन लेखकों से उनका परिचय बढ़ाया जाएगा, उन्हें सामग्री उपलब्ध कराई जाएगी, उतना अधिक साहित्यिक चर्चाओं का वातावरण उच्च शिक्षण संस्थानों में तैयार होगा।