सीखने के सहज पड़ाव

बच्चे को सामान्य रूप से उपयोग और प्रयोग में आने वाली चीजों का प्रारंभिक ज्ञान कराया जा सकता है। जैसे-दूध कैसे प्राप्त होता है? उसकी क्या उपयोगिता है? वह कब हानि और कब लाभ करता है? अच्छे और खराब दूध की क्या पहचान है? अन्न कैसे उत्पन्न होता है? कौन-सा अन्न कैसा होता है और उसकी क्या पहचान है? सब्जियां कैसे उगाई जाती हैं? कपड़ा कैसे बनता है? कापी, कागज, किताबें आदि किस प्रकार इस रूप में आती हैं? आदि। तात्पर्य यह है कि नित्य प्रति प्रयोग में आने वाली चीजों के माध्यम से उसमें ज्ञानोपार्जन की एक प्रवृति का जागरण किया जा सकता है, जिससे आगे चलकर उसमें अधिकाधिक ज्ञान की जिज्ञासा उत्पन्न हो जाएगी और वह अध्ययनशील एवं अन्वेषणशील बन जाएगा, जिससे बौद्धिक विकास में पर्याप्त लाभ होगा। पाठशाला में भेजने से पूर्व बच्चे को साल-दो-साल घर पर पढ़ा लेना चाहिए, जिससे कि शिक्षा के अनुकूल उसका बौद्धिक धरातल तैयार हो जाए। घर पर शिक्षा देने से इस बात का भी पता लग जाएगा कि किन विषयों में उसकी विशेष रुचि है और कौन से विषय उसे कठिन पड़ते हैं। इसका पता लग जाने से शिक्षक को उससे अवगत कराया जा सकता है, जिससे शिखक को उसे समझाने और पढ़ाने में सुविधा हो। साथ ही जब कोई बच्चा कुछ अपनी योग्यता लेकर घर से पाठशाला जाएगा, तो पढ़ना उसके लिए एकदम कोई नई चीज न होगी और वह कक्षा में ठीक से चल सकेगा। अधिकतर बच्चे तीन-चार वर्ष की आयु में ही पाठशाला की ओर हांक दिए जाते हैं, जिससे वह नए काम और नई जगह के कारण घबराते हैं, रोते हैं और बचना चाहते हैं। नित्यप्रति पाठशाला जाने के समय अनुरोध का झंझट पैदा होता है, जिससे अभिभावक को झल्लाहट और बच्चे को अरुचि पैदा होती है और कभी-कभी तो माता-पिता परेशान होकर उसे शिक्षा के अयोग्य समझ कर इस ओर से उदासीन हो जाते हैं और यह धारणा बनाकर पढ़ने से बिठा लेते हैं कि इसके भाग्य में विद्या है ही नहीं। अस्तु पाठशाला भेजने से पहले यदि उसके अनुकूल उसका बौद्धिक धरातल घर पर ही तैयार कर दिया जाए तो इस प्रकार की संभावनाओं का अवसर ही न आए। शिक्षा के विषय में केवल शिक्षालयां तथा शिक्षकों पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए। स्वयं भी देखना चाहिए कि उनका बच्चा पढ़ाई-लिखाई में क्या प्रगति कर रहा है? कमजोर बच्चों की अभिभावकों को स्वयं पढ़ाई में कुछ न कुछ सहायता करनी चाहिए। साल बचाने के लिए एक कक्षा से दूसरी कक्षा में पहुंचाने के लिए व्यर्थ प्रयत्न न करना चाहिए। शिक्षा योग्यता के मापदंड से नापन चाहिए न कि कक्ष की श्रेणी से। आशय यह है कि बच्चे के लिए शिखा की ऐसी अवस्थाओं और व्यवस्थाओं का प्रबंध करना चाहिए, जिससे कि वे दिन-प्रतिदिन योग्य बन सकें। मानसिक विकास के लिए उन्हें अधिक से अधिक प्रसन्न एवं विशुद्ध वातावरण में रखने का प्रयत्न करना चाहिए। न उस पर इतना नियंत्रण करन चाहिए कि वे मुर्दा मन हो जाएं और न इतनी छूट देनी चहिए कि वे उच्छृंखल हो जाएं। इन्हें भय से मुक्त करने के लिए साहस की कथाएं सुनाई जानी चाहिएं और उदाहरण देने चाहिए। उन्हें किसी बात से सावधान करना चाहिए, किंतु भयभीत नहीं। धीरे-धीरे कठिन कामों का अभ्यस्त बनाना चाहिए, क्योंकि ऐसा न करने से वे भी व्यसनी बन सकते हैं और तब उन पर समझाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।