सृजन और शोध के नाम पर पिछड़ रहे हैं विश्वविद्यालय

डा. विजय विशाल

हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय जैसे शैक्षणिक संस्थान साहित्य सृजन या साहित्यिक माहौल बनाने में क्या भूमिका निभा रहे हैं? सीधे-सीधे इस प्रश्न का उत्तर न देकर मैं इस बारे में अपनी टिप्पणी कुछ उक्तियों से शुरू कर रहा हूं- ‘कबीरदास ने काशी विश्वविद्यालय से संस्कृत भाषा में पीएचडी तक शिक्षा प्राप्त की। बाद में वे इसी विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्राध्यापक नियुक्त हुए।’ ‘रामचरितमानस महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध रचना है।’ ये तो कुछ बानगियां हैं। ऐसी अनेक टिप्पणियां बाहरवीं कक्षा के छात्रों की उत्तर पुस्तिकाआें में देखने को मिल जाती हैं। धन्य हैं हमारे ये छात्र जो हिंदी साहित्य का नया व मौलिक इतिहास लिखने की कुव्वत रखते हैं। बलिहारी जाऊं इन छात्रों के उन शिक्षकों पर जिनकी छत्र छाया में यह नया इतिहास रचा जा रहा है। हिंदी साहित्य की यह स्थिति महज स्कूलों तक सीमित नहीं है, बल्कि महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भी कमोवेश ऐसी ही है। वहां ऐसी टिप्पणियां तो शायद न मिले, परंतु ठहराव जरूर मिलेगा। शिक्षा के इन बड़े संस्थानों में साहित्य की गति पाठ्यक्त्रम तय करता है। चूंकि पाठ्यक्रम रोज-रोज बदलते नहीं, इसलिए हिंदी साहित्य में पाठ्यक्रम से इतर कुछ नया सृजन हुआ है इस बात की जानकारी अधिकांश प्राध्यापकों को ही न होगी। फिर छात्रों की तो औकात ही क्या? आप इसे गप मान रहे होंगे। मानिए। कौन मना करता है? पर पहले इन विभूतियों से तो मिलते जाइए। नाम से परिचय आवश्यक नहीं। नाम कुछ भी हो सकता है। दोनों महाशय हिंदी में (हिन्दी साहित्य नहीं कहूंगा)पीएचडी हैं। वर्षों से सरकरी महाविद्यालय में हिन्दी एमए की कक्षाओं को पढ़ाते आ रहे हैं। लिखते-लिखते बाल भी सफेद हो चुके हैं। साहित्य की शायद ही कोई विधा हो, जिस पर इनकी दो-चार पुस्तकें प्रकाशित न हुई हों। दिन तो याद नहीं जब इनसे भेंट हुई। मगर इतना याद है कि उन दिनों कवि शमशेर बहादुर सिंह का निधन हुए       जुमा-जुमा तीन-चार दिन ही हुए थे। साहित्यिक गुरुओं से भेंट हुई तो सहज ही मानो या औपचारिकतावश रेस्तरां में बैठना पड़ा। उनके हाथ एक राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र था। पत्र में कवि शमशेर बहादुर सिंह पर संपादकीय छपा था। जो शायद उन दोनों प्राध्यापकनुमा साहित्यकारों नें पढ़ लिया था। दिवगंत कवि की चर्चा सहज ही चल पड़ी। दोनों की संयुक्त टिप्पणी थी, उन्हीं के शब्दों में, ‘नाम से तो यह (शमशेर) नया कवि लगता है, परंतु यह तो बड़ा पुराना (संपादकीय आधार पर) कवि निकला।’ साहित्यकार बंधुओं के इस असामान्य ज्ञान पर दिल जार-जार हो रहा था। इसलिए नहीं कि वे साहित्यकार थे, बल्कि इसलिए कि वे दोनों प्राध्यापक थे और स्नातकोत्तर कक्षाओं को हिंदी साहित्य पढ़ाते थे, जिसमें शमशेर कहीं न कहीं जरूर अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं। अकसर ऐसी रोचक  और हास्यास्पद टिप्पणियां छात्रों और शिक्षकों से हिंदी साहित्य व साहित्यकारों के बारे में मिलती रहती हैं। छात्रों को तो   मुआफ  भी किया जा सकता है, पर जो हिंदी साहित्य पढ़ाने के नाम पर हर माह एक बड़ी रकम वेतन के नाम पर लेते हैं क्या कर लेंगे आप उनका? यहां ’हंस’ के पूर्व संपादक व दिवंगत साहित्यकार राजेंद्र यादव की उस टिप्पणी से कमोवेश सहमत हुआ जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा था, ‘पिछले सौ वर्षों में साहित्य को इन शिक्षण संस्थानों (विश्वविद्यालय आदि) ने वैसा कुछ भी हिंदी साहित्य को नहीं दिया जिसे याद रखा जा सके। न सृजन के नाम पर और न शोध के नाम पर।’ जबकि सच्चाई यह है कि आंकड़ों के हिसाब से हिंदी साहित्य के सबसे ज्यादा पाठक और वाचक इन शिक्षण संस्थानों में ही दर्ज होंगे। जायसी, कबीर, तुलसी या प्रेमचंद की जो गति (दुर्गति नहीं) वहां हो रही है, तो उस समाज में क्या होगी जहां प्रति दस हजार एक पाठक मिलता हो। यही बड़ा प्रश्न उनके लिए है, जो फिर भी साहित्य रच रहे हैं।

* लेखक कवि और आलोचक हैं।