उपचुनाव नतीजों के अर्थ

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

पश्चिम बंगाल में और सभी दल घुस सकते हैं, लेकिन भाजपा के लिए बंगाल में घुसना आसान नहीं है। यहां तक कि जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के वक्त भी जनसंघ बंगाल के लोगों का मनोविज्ञान को पकड़ नहीं सका था, लेकिन आज इतने साल बाद लगता है कि भाजपा ने बंगाल से सीपीएम को अपदस्थ करने का जनपथ पकड़ लिया है। दक्षिण कंठी के बाद यह बात सीपीएम भी समझ रहा है और ममता दीदी भी। अलबत्ता कांग्रेस के बोलने का बंगाल में कोई अर्थ नहीं है। इन उपचुनावों के अर्थ दिल्ली और बंगाल के लिए वही हैं, जिसे न केजरीवाल सुनना चाहते हैं और न सीताराम येचुरी…

पिछले दिनों कुछ राज्यों में विधानसभाओं की रिक्त हुई सीटों पर उपचुनाव हुए थे। इन दस सीटों के लिए हुए उपचुनावों के नतीजे घोषित कर दिए गए। इनमें से कर्नाटक की विधानसभा की दोनों सीटें कांग्रेस ने जीत ली हैं। पहले भी ये दोनों सीटें कांग्रेस के पास ही थीं। इसी प्रकार मध्य प्रदेश विधानसभा की दो सीटों के लिए चुनाव हुए थे। उनमें से एक कांग्रेस के पास थी और इस बार कांग्रेस ने उसे छिनने नहीं दिया। दूसरी सीट भाजपा के हिस्से आई है। झारखंड में एक सीट के लिए चुनाव हुआ। यह सीट पहले झारखंड मुक्ति मोर्चा के पास थी और अब भी उसके पास ही रही। हिमाचल प्रदेश में एक सीट के लिए चुनाव हुआ। यह सीट भाजपा के पास थी और चुनाव के बाद भी भाजपा के पास ही रही। राजस्थान विधानसभा की एक सीट का चुनाव था। यह सीट भाजपा ने जीत ली। असम में भी भाजपा ने अपनी सीट छिनने नहीं दी। दिल्ली विधानसभा की राजौरी गार्डन सीट के लिए उपचुनाव हुआ था। यह सीट भाजपा ने आम आदमी पार्टी से छीन ली। पश्चिमी बंगाल में दक्षिण कंठी सीट के लिए उपचुनाव हुआ। यह सीट पहले भी तृणमूल कांग्रेस के पास थी और चुनाव के बाद भी ममता बनर्जी के पास ही रही। यानी दस सीटों में से भाजपा ने पांच और कांग्रेस ने तीन सीटें जीतीं। ये तो हुए आंकड़े। लेकिन आंकड़ों की कोई भाषा नहीं होती। बिना भाषा के वे अर्थहीन हो जाते हैं। इसलिए आंकड़ों का अर्थ समझने के लिए उसको भाषा देने की जरूरत होती है। इन आंकड़ों की भाषा क्या हो सकती है? सबसे पहले दिल्ली विधानसभा का उपचुनाव। राजौरी गार्डन की यह सीट 2015 के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने जीती थी। केवल यही सीट नहीं, बल्कि तीन सीटें छोड़ कर आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा की सभी सीटें जीत ली थीं।

कांग्रेस दिल्ली विधानसभा की कोई सीट नहीं नहीं जीत सकी थी और भाजपा केवल तीन सीटों पर सिमट गई थी। उसके बाद आम आदमी पार्टी को बहम हो गया था कि वह देश में कांग्रेस का विकल्प है। कांग्रेस का स्थान भाजपा नहीं ले सकती। इसके लिए आम आदमी पार्टी ने पंजाब व गोवा विधानसभा के चुनावों में हाथ आजमाया। ये दो प्रदेश चुनने का भी कारण था। पंजाब व गोवा देश के दो छोर हैं। यदि इन दोनों प्रांतों में आम आदमी पार्टी सरकार बना लेती है, तो लोगों की नजर में वह राष्ट्रीय पार्टी स्वीकार की जा सकती है। भाजपा को रोकने के लिए आप की राष्ट्रीय इमेज होना जरूरी है, लेकिन केजरीवाल इस दंगल में फेल हो गए। गोवा में तो केजरीवाल की पार्टी सम्मानजनक सीढ़ी तक नहीं पहुंच पाई। पंजाब में वे सरकार नहीं बना सके। अब उनके पास अपने आप को पुनः स्थापित करने के लिए राजौरी गार्डन की सीट जीतना जरूरी था। यह सीट जीत कर ही वे दिल्ली की राजनीति में प्रासांगिक बने रह सकते थे। केजरीवाल देश की सत्ता हथियाने के लिए अपनी सारी लड़ाई दिल्ली के अपने सुरक्षित किले में बैठ कर ही लड़ रहे हैं। इसलिए उनके लिए राजौरी गार्डन की सीट जीतना या यदि जीत नहीं सकते तो कम से कम सम्मानजनक वोटें हासिल करना जरूरी था। सम्मानजनक वोटें लेकर वे कम से कम यह कह सकते थे कि दिल्ली की राजनीति में वे अभी भी मैदान में हैं। लेकिन राजौरी गार्डन सीट के चुनाव परिणाम ने सब कुछ उल्टा-पुल्टा कर दिया। इस सीट पर कुल मिला कर 78,091 वोटें पड़ीं। इसमें आम आदमी पार्टी को केवल 10,243 वोटें मिलीं और उसकी जमानत जब्त हो गई। यानी केजरीवाल की पार्टी दिल्ली की राजनीति से बाहर हो गई। उसकी जगह फिर कांग्रेस ने ले ली।

कांग्रेस को 25,950 वोटें मिलीं। भाजपा ने 40,602 वोटें प्राप्त कर सीट जीत ली है। वैसे आशावादी कहेंगे कि केवल एक सीट हारने से आम आदमी पार्टी दिल्ली में अप्रासांगिक नहीं हो सकती, लेकिन आम आदमी पार्टी की इस हार की यह व्याख्या ठीक नहीं कही जा सकती, क्योंकि 2015 में आम आदमी पार्टी की अप्रत्याशित जीत का भी न कोई तर्क था और न ही व्याख्या। वह एक आंधी आई थी, जो कभी-कभार आती है, लेकिन जिनके घर में आम गिरा जाती है, वे विविध व्याख्याओं से इसे अपने प्रयासों का नतीजा समझने की भूल कर लेते हैं। इसी भूल के कारण केजरीवाल वाराणसी से पंजाब, पंजाब से गोवा तक में भटकते रहे, लेकिन राजनीति में आंधी कभी-कभार आती है। इसका मौसम विज्ञान में कोई उदाहरण नहीं मिलता। राजौरी गार्डन में केजरीवाल के आदमी की जमानत जब्त होना इस आंधी के समाप्त हो जाने का संकेत हैं। केजरीवाल के समर्थक दावा कर रहे हैं कि राजौरी गार्डन के बाद दिल्ली में त्रिदलीय व्यवस्था स्थापित हो रही है। लेकिन व्यवस्था पुनः दो दलीय व्यवस्था की ओर मुड़ रही है। दस दिन बाद दिल्ली के नगर निगमों के लिए होने जा रहे चुनावों में आम आदमी पार्टी का रहा-सहा खुमार भी उतर जाएगा। दूसरा किस्सा पश्चिमी बंगाल का है। वहां दक्षिण कंठी सीट एक बार पुनः ममता की तृणमूल कांग्रेस ने 42,526 वोटों से जीती है। इस बार उसे पहले से भी ज्यादा मत प्राप्त हुए हैं। इससे ममता का प्रसन्न होना स्वाभाविक ही है। इसका उन्होंने खुलासा भी किया। उन्होंने कहा कि इस जीत से सिद्ध हो गया है कि बंगाल के लोग तृणमूल के साथ हैं। भाजपा ने यह सीट हारी है। उसे 52,843 वोट मिले। इसलिए उसके प्रसन्न होने का कोई कारण नहीं है, लेकिन भाजपा इस सीट के परिणाम से प्रसन्न है।

उसका कारण है। इस सीट पर सीपीएम और सीपीआई ने भी मिल कर अपना प्रत्याशी खड़ा किया था। इसी प्रकार सोनिया कांग्रेस ने भी अपना प्रत्याशी उतारा था। इस सीट पर सीपीएम और सीबीआई को कुल मिलाकर 17,423  वोट मिले और कांग्रेस को  2270 वोट मिले। कम्युनिस्टों और कांग्रेस दोनों की ही जमानत जब्त हो गई। इसका अर्थ हुआ बंगाल में सीपीएम अपना द्वितीय स्थान खोती जा रही है। कांग्रेस तो पहले ही बंगाल के मैदान से फिसलती जा रही है। अभी तक यह माना जा रहा था कि बंगाल का राजनीतिक मैदान तृणमूल कांग्रेस और सीपीएम के लिए सुरक्षित है। वहां और सभी दल घुस सकते हैं, लेकिन भाजपा के लिए बंगाल में घुसना आसान नहीं है। यहां तक कि जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के वक्त भी जनसंघ बंगाल के लोगों का मनोविज्ञान को पकड़ नहीं सकी थी, लेकिन आज इतने साल बाद लगता है कि भाजपा ने बंगाल से सीपीएम को अपदस्थ करने का जनपथ पकड़ लिया है। दक्षिण कंठी के बाद यह बात सीपीएम भी समझ रहा है और ममता दीदी भी। अलबत्ता कांग्रेस के बोलने का बंगाल में कोई अर्थ नहीं है। इन उपचुनावों के अर्थ दिल्ली और बंगाल के लिए वही हैं, जिसे न केजरीवाल सुनना चाहते हैं और न सीताराम येचुरी। लेकिन ज्यादा देर तक कानों में रुई नहीं डाली जा सकती।

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