क्या आत्मघात से बच पाएगी कांग्रेस-2

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

कांग्रेस में एक दोष संगठन को गढ़ने में विफलता और वफादार दरबारियों पर बढ़ती निर्भरता को माना जाएगा। संगठन में आंतरिक लोकतंत्र के लिए यहां न तो वास्तविक चुनाव करवाए जाते हैं और न ही तृणमूल स्तर के कार्यकर्ताओं की इस तरह की महत्त्वपूर्ण गतिविधियों में कोई भागीदारी होती है। वास्तव में पार्टी एक वाणिज्यिक कंपनी की तरह काम कर रही है और वह भी वास्तविक निदेशक और शेयरधारकों के बगैर। इस तरह यह एक परिवार के नियंत्रण वाली कंपनी प्रतीत होती है…

गतांक से आगे…

प्रसिद्ध चीनी जनरल सुन त्सू ने अपनी पुस्तक ‘आर्ट ऑफ वॉर’ ने एक गहरी बात को समझाते हुए कहा था, ‘अगर आप खुद को जानते हैं और दुश्मन को नहीं, तो आप हर तीसरा युद्ध हार जाओगे, लेकिन अगर आप न तो दुश्मन के बारे में जानते हैं और न ही खुद के बारे में, तो आप हर जंग हार जाओगे।’ कांग्रेस पार्टी की चौथी बड़ी कमजोरी अपने क्षेत्रीय और स्थानीय नेताओं की भागीदारी सुनिश्चित करने में विफलता को माना जाएगा, जो इसे जमीनी हालात से अनजान बना देती है। इसकी कीमत पार्टी को पूर्वोत्तर और देश के अन्य राज्यों में विधानसभा चुनावों में पराजय के रूप में चुकानी पड़ी है। इन राज्यों में पार्टी के जो नेता जीत की चाह में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे, उन्होंने कड़े शब्दों में निंदा करते हुए कहा है कि कांग्रेस नेताओं की हाई कमान तक सीमित सी पहुंच रहती है। पंजाब का ही मामला ले लीजिए। शुरुआती दौर में कैप्टन अमरेंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं माना जा रहा था। जब तक कैप्टन अमरेंदर सिंह ने मजबूती के साथ इसके लिए अपना दावा पेश नहीं किया, तब तक नवजोत सिंह सिद्दू को पार्टी में एक नई आशा व संभावना के तौर पर देखा जा रहा था। सवाल यह कि आखिर शुरुआती दौर से ही अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में क्यों देखा नहीं जा सका? जिन भ्रमों से बचा जा सकता है, अगर उनसे न बचा जाए या हड़बड़ाहट में कदम न उठाए जाएं, तो उससे युद्ध के मैदान में अपने हथियार कुंद पड़ जाते हैं। कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल सकता था, लेकिन इसे खुद ही विचार करना चाहिए कि क्या इसकी रणनीति स्पष्ट थी या यह स्थिति के मुताबिक तेजी के साथ कार्य कर पाई? कांग्रेस की इस दुर्दशा का वास्तविक कारण यह है कि इसे न तो अपनी ताकत और कमजोरियों का पता है और न ही दुश्मन की। अब यहां से कांग्रेस को संवाद के दरवाजे खोलने चाहिएं और क्षेत्रीय नेताओं को अधिक से अधिक अभिव्यक्ति का अवसर देना चाहिए।

पंजाब के मामले से यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल हो गया है कि क्षेत्रीय नेताओं को काम के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाना चाहिए। पंजाब, हिमाचल प्रदेश और अन्य दोनों राज्यों में पार्टी प्रमुखों की सफलता और विफलता के अपने-अपने उदाहरण रहे हैं। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में जीत को लेकर कैप्टन अमरेंदर सिंह बेहद आश्वस्त दिख रहे थे, लेकिन अंततः पार्टी को हार झेलनी पड़ी। इसके विपरीत अकाली-भाजपा गठबंधन सूबे में अपनी सत्ता बचाने में सफल रहा, जबकि बहुत से लोगों ने इसकी कल्पना तक नहीं की थी। कुछ इसी तरह का अनुभव हिमाचल के बारे में भी याद आता है, जब वीरभद्र सिंह को प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व से हार झेलनी पड़ी थी। पंजाब में हाल ही में संपन्न हुए चुनावों से पहले पंजाब में ‘आप’ के उभार से स्थिति बेहद पेचीदा हो गई थी, लेकिन अकाली-भाजपा के गठबंधन ने ‘आप’ को पीछे छोड़ते हुए संतोषजनक वोट हासिल किए। आज सफल रणनीति का असल रहस्य यही है कि जीतने वाली पार्टी का हाई कमान, क्षेत्रीय आकांक्षाओं को भी अंगीकार कर रहा है। लेकिन इसके लिए हाई कमान को भी दूरदर्शिता और योग्यता दिखानी जरूरी होती है। कांग्रेस में पांचवां दोष संगठन को गढ़ने में विफलता और वफादार दरबारियों पर बढ़ती निर्भरता को माना जाएगा। संगठन में आंतरिक लोकतंत्र के लिए यहां न तो वास्तविक चुनाव करवाए जाते हैं और न ही तृणमूल स्तर के कार्यकर्ताओं की इस तरह की महत्त्वपूर्ण गतिविधियों में कोई भागीदारी होती है। वास्तव में पार्टी एक वाणिज्यिक कंपनी की तरह काम कर रही है और वह भी वास्तविक निदेशक और शेयरधारकों के बगैर। इस तरह यह एक परिवार के नियंत्रण वाली कंपनी प्रतीत होती है। उत्तराधिकार को लेकर वंशवादी दृष्टिकोण की वजह से पार्टी को अब तक काफी आलोचना झेलनी पड़ी है, लेकिन लोकतंत्र के लिहाज से मैं इसे कोई बड़ा नुकसान नहीं मानता। ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टी के इस बोर्ड के निदेशकों को जो विशेषाधिकार हासिल हैं, वे उनसे अधिक योग्यता रखने पार्टी सदस्यों को हासिल नहीं हैं।

कांग्रेस युवा नेताओं को तैयार करने और विश्वास लायक अनुभवी मार्गदर्शकों का लाभ लेने में भी विफल रही है। मुख्यमंत्रियों समेत कांग्रेस के लगभग सभी नेता संकट से घिरे हुए नजर आते हैं, क्योंकि उनमें से ज्यादातर पर घोटालों के आरोप हैं। साफ छवि वाले और पारदर्शी नेताओं को पार्टी में शामिल करने का कोई प्रभावी प्रयास नहीं किया गया। इसके परिणामस्वरूप दागी लोगों को पार्टी के मुद्दों के रक्षकों के रूप में आगे किया गया, जो कि पहले से ही अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। राहुल गांधी ने इस समस्या के हल के तौर पर पारदर्शी चुनावों की एक सराहनीय पहल जरूर की थी और इसके लिए वह जेएम लिंगदोह को आगे लेकर आए, जो ईमानदारी के लिए जाने जाते थे। लेकिन इस पूरे तंत्र में कदाचार की घुसपैठ हो गई और उनके सारे प्रयासों पर पलीता लग गया। मैंने कई ऐसे मामले भी देखे हैं, जहां कोई संगठनात्मक चुनाव नहीं होता, लेकिन उसके बाकायदा परिणाम घोषित किए जाते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि कुछ प्रभावशाली नेता मनमर्जी से किसी अंतिम परिणाम तक पहुंच जाते हैं, जबकि जिला से लौटने वाले अधिकारी लिखित रूप में कहता था कि कोई भी चुनाव नहीं हुआ। इससे भी बदतर यह कि हाई कमान में इस संदर्भ में अपील की गई, जिसको 30 दिनों के भीतर निपटाया जाना चाहिए था, लेकिन वर्षों बाद भी उसको लेकर कोई जवाब नहीं आया। शीर्ष स्तर पर बैठे लोग पार्टी कार्यकर्ताओं की शिकायतों और अपीलों के प्रति एकदम उदासीन हैं। जिलों और ब्लॉकों में आंतरिक झगड़े हैं, लेकिन कोई भी इन्हें सुलझाने के लिए शीर्ष स्तर से प्रयास नहीं करता।

आंतरिक झगड़े जारी रहते हैं और लगभग सभी जिलों में इस किस्म का असंतोष व्याप्त है। पार्टी कार्यकर्ताओं ने, विशेष कर दूरदराज के क्षेत्रों में अब प्रभावशाली नेताओं के अन्याय और बेरहम ‘दादागिरी’ को सहना सीख लिया है। शिकायत निवारण और अपील की प्रणाली लगभग समाप्त हो चुकी है और पार्टी संहिता भी मृतप्रायः है। क्या पार्टी में न्याय और निष्पक्षता को पुनः जीवित नहीं किया जाना चाहिए? क्या ईमानदारी और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता को बढ़ावा नहीं देना चाहिए? संगठन में जो लोग अपनी योग्यता को प्रमाणित कर चुके हैं, क्या पार्टी को उनकी कद्र और सम्मान नहीं करना चाहिए? मेरा आकलन है कि पार्टी संगठन कई जगहों पर बिखर चुका है और आज इसे फिर से संजोने की जरूरत है। सिर्फ मोदी-मोदी चिल्लाने से न तो मोदी प्रभाव खत्म होगा और न ही पार्टी कार्यकर्ताओं को इससे कोई सकारात्मक ऊर्जा मिलेगी, क्योंकि आज यह तरीका किसी को भी पसंद नहीं आता। संगठन की इस उदासीनता के बारे में मैं खुद हाई कमान को लिखकर अवगत करवा चुका हूं, लेकिन इसकी किसी को कोई चिंता ही नहीं है। यह बेपरवाही अब यहीं समाप्त होनी है और कुछेक लोगों की निरंकुशता के बजाय आंतरिक लोकतंत्र में प्राण फूंकने होंगे। लेकिन क्या कांग्रेस इस पर अमल करेगी? या यूं ही एक के बाद एक मात झेलती रहेगी।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com