दूसरों को जानने-समझने में खुद को न भूलें

मनुष्य जीवनभर यही सीखने की कोशिश करता रहता है कि दूसरों के साथ कैसे रहे, दूसरों से कैसा व्यवहार हो, दूसरों को कैसे प्रभावित किया जाए, लेकिन वह यह नहीं सीख पाता कि अपने साथ कैसे रहे, स्वयं से स्वयं का व्यवहार कैसा हो, स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार कैसे किया जाए…

कई व्यक्ति भरपूर सुख -सुविधाओं के बावजूद अपने जीवन से असंतुष्ट रहते हैं। ऐसा क्यों है? क्या धन, पद, सम्मान, ऐश्वर्य और सुख-सुविधाएं जीवन को आनंद नहीं दे पा रहे हैं। जीवन में ऐसी क्या कमी रह जाती है, जिसके कारण सुख की तलाश पूरी ही नहीं होती। इसका कारण है कि सुख की तलाश की दिशा सही नहीं है। हम सुख बाहर खोजते हैं, जबकि वह भीतर विद्यमान है। हम सुख भौतिकता में खोजते हैं जबकि सुख वहां नहीं है। आज का मनुष्य एक ध्येय लेकर चलता है और वह है उसका अपना आर्थिक लाभ,भौतिक आकांक्षाएं और इन्हीं की उधेड़बुन में वह सब कुछ भूल जाता है और गोरखधंधों में जुटा रहता है। यहीं से समस्याओं का शुरुआत होती है।  मनुष्य जीवनभर यही सीखने की कोशिश करता रहता है कि दूसरों के साथ कैसे रहे, दूसरों से कैसा व्यवहार हो, दूसरों को कैसे प्रभावित किया जाए, लेकिन वह यह नहीं सीख पाता कि अपने साथ कैसे रहे, स्वयं से स्वयं का व्यवहार कैसा हो, स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार कैसे किया जाए। यही स्थिति हमारी समस्याओं की जड़ है। मनुष्य बहुत सारे कार्य करता है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च जाता है। गीता, कुरान बाइबल और गुरुवाणी भी जपता है। अपने शरीर भी अवहेलना करके भी भागदौड़ में लगा रहता है। उसका सारा ध्यान संसार पर केंद्रित होता है। भटक रहे हैं इधर-उधर। वे दिशाहीनता के शिकार हैं। अपने सुख और आनंद के लिए एक घेरे में लगातार चक्कर लगा रहे हैं। जबकि सुख का स्रोत वहां है ही नहीं। खुद को हर पल में स्वीकार करना और स्व से प्रेम करना ही सुख का मूल है। हम जैसे भी हैं, अपने आप में बेहतरीन हैं। यही भावना, आत्मसम्मान और विश्वास जगाएं और अपने गुण-दोषों का आकलन करें। दलाईलामा ने कहा कि मैं इस आसान धर्म में विश्वास रखता हूं। मंदिरों की कोई आवश्यकता नहीं, जटिल दर्शनशास्त्र की कोई आवश्यकता नहीं। हमारा मस्तिष्क, हमारा हृदय ही हमारा मंदिर है और दयालुता जीवन दर्शन है। किसी व्यक्ति के स्वयं से साक्षात्कार न होने को दो तरह से समझा जा सकता है। पहले तो इस तरह के व्यक्ति स्वयं को समझ नहीं रहे हैं। वे सक्रिय हैं और खूब सक्रिय हैं। पर्याप्त कार्य कर रहे हैं। चूंकि वे स्वयं के बारे में भी कभी सोचते ही नहीं हैं अथवा वे अपनी क्षमताओं व सीमाओं से अवगत नहीं हैं। इसलिए अपनी धुन में, अपनी दिशा में घूम रहे हैं। जबकि अपने गुण या दोषों को खोजकर उसी अनुसार आगे बढ़ना चाहिए। क्योंकि जो कार्य कर रहे हैं उनसे बेहतर करने की सामर्थ्य हमारे भीतर विद्यमान है। हॉवर्ड शैंडलर क्रिस्टी ने कहा कि हर सुबह मैं पंद्रह मिनट अपने मस्तिष्क में प्रभु की भावनाओं को समाहित करता हूं और इस प्रकार से चिंता के लिए इसमें कोई स्थान रिक्त नहीं रहता है। इसे यों भी अभिव्यक्त किया जा सकता है कि हम केवल सांसारिक चीजों की ओर आकृष्ट हैं। निजी हितों के लिए दौड़ रहे हैं। अपने लाभ के लिए जायज-नाजायज कार्य कर रहे हैं। वह घर, रिश्ते, बच्चें और अपनी दुनिया तक को परे रख केवल कुछ बनने या कमा लेने को अपने जीवन का ध्येय बना चुके हैं। उसे सिवाय इसके और कुछ भी नहीं सूझता है। न उसके चिंतन की परिसीमाओं में अपने लाभ के अतिरिक्त उसके लिए कुछ शेष रह गया है। यहां यह स्पष्ट है कि दोनों ही तरह के लोग भटके हुए हैं। दोनों ही तरीकों से जीवन जीने वाले भ्रमित हैं। ऐसा भ्रम, जीवन में एक बार प्रविष्ट होने के बाद पिंड नहीं छोड़ता। अंतिम सांस तक वह मनुष्य को घेरे रहता है। एक तरह से वह जीवन की तमाम सरसता को ही लील लेते हैं। स्वयं को जानने व स्वयं से साक्षात्कार करने के लिए हमें नए सिरे से विचार करना होगा। इस प्रचलित घेरे से बाहर आना होगा। इस तरह अपने आप में सुधार करते हुए हम न केवल अपनी परेशानियों और समस्याओं के हल कर सकेंगे, बल्कि सुख और आनन्द का भी अनुभव प्राप्त कर सकेंगे।

– ललित गर्ग, पटपड़गंज, नई दिल्ली