भारत का इतिहास

भारत ने अस्वीकार किया 1935 का अधिनियम

भारत की ओर से संविधान सभा की मांग निश्चित रूप से प्रस्तुत करने का यह पहला अवसर था। इसके बाद यह मांग बार-बार और अधिकाधिक आग्रहपूर्वक प्रस्तुत की जाती रही। अप्रैल, 1936 के लखनऊ अधिवेशन तथा दिसंबर 1936 के फैजपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने प्रस्ताव पास करके 1935 के अधिनियम की पूरी तरह अस्वीकार कर दिया और कहा कि बाहर की किसी सत्ता को यह अधिकार नहीं है कि वह भारत के लिए राजनीतिक और आर्थिक संगठन का निर्माण करे। प्रस्तावों में यह भी स्पष्ट कर दिया गया था कि कांग्रेस भारत में एक ऐसे सच्चे लोकतंत्रात्मक राज्य की  स्थापना करना चाहती है, जिसमें राजनीतिक शक्ति समूची जनता को हस्तांतिरत कर दी गई हो और सरकार  उसके कारगर नियंत्रण में हो। इस तरह का राज्य केवल ऐसी संविधान सभा द्वारा ही उत्पन्न हो सकता था, जो मताधिकार द्वारा निर्वाचित की गई हो और जिसे देश के लिए संविधान बनाने का अंतिक अधिकार हो। फैजपुर अधिवेशन में अध्यक्ष पद से भाषण करते हुए पंडित नेहरू ने स्पष्ट घोषणा  की कि वयस्क मताधिकार द्वारा निर्वाचित संविधान सभा की मांग आज की कांग्रेस की नीति का आधार स्तंभ है। एक अन्य प्रस्ताव द्वारा फैजपुर अधिवेशन ने निश्चय किया कि 1935 के भारत शासन अधिनियम के अंतर्गत शीघ्र्र ही होने वाले प्रांतीय विधानसंभाओं के निर्वाचनों के बाद केंद्रीय और प्रांतीय विधान-मंडलों के कांग्रेसी सदस्यों में निर्णायक सफलता पाने के बाद कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने दिल्ली में 18 मार्च, 1937 को अपनी बैठक में एक प्रस्ताव द्वारा इस बात पर जोर दिया कि चुनावों के परिणामों से संविधान-सभा की मांग जनता द्वारा पुष्टि सिद्ध होती है। जनता चाहती है कि 1935 का अधिनियम वापस  ले लिया जाए तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता के आधार पर भारतीयों को अपनी संविधानसभा में अपना संविधान स्वयं बनाने का अवसर दिया जाए। अगले दो दिन अर्थात 19 और 20 मार्च, 1937 को देहली में केंद्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों के कांग्रेस सदस्यों का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ, जिसमें संविधान सभा की मांग को दृढ़तापूर्वक दोहराया गया। अगस्त अक्तूबर, 1937 के बीच केंद्रीय विधान-सभा में, उन सभी प्रांतों में जहां कांग्रेस सरकारें थी तथा सिंध में विधानसभाओं  ने ऐसे प्रस्ताव पास किए, जिनमें भारत के निमित्त एक नया संविधान बनाने के लिए संविधान सभा की मांग का जोरदार समर्थन किया गया था। फरवरी 1938 में सुभाषचंद्र बोस की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस के हरिपुर अधिवेशन में भी 1935 के अधिनियम की संघीय व्यवस्था की आलोचा की गई तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता के आधार पर संविधान सभा द्वारा बनाए संविधान पर विश्वास प्रकट किया गया।