यदि भाखड़ा न होता

श्रीपाद धर्माधिकारी लेखक, म.प्र. स्थित मंथन अध्ययन केंद्र के समन्यवयक हैं

भाखड़ा न होता तो देश की तस्वीर क्या होती? अकसर पूछा जाने वाला यह सवाल अधिकतर जवाब की तरह पूछा जाता है। दूसरे शब्दों में अकसर यह सवाल बड़े बांधों के पक्ष में एक लाजवाब तर्क के रूप में पेश किया जाता है। भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के पूर्व सचिव रामास्वामी अय्यर कहते हैं कि एक तर्क यह दिया जाता है ‘किसी भी काम को करने में कीमत लगती है, लेकिन कीमत किसी काम को न करने की भी चुकानी होती है।’ यह तर्क अकसर इस सवाल के साथ जोड़ा जाता है कि अगर भाखड़ा-नंगल न होता, तो देश का क्या होता? परियोजना को न बनाने की कीमत का अर्थ सिर्फ यह है कि अगर यह नहीं होती, तो इससे होने वाले लाभ नहीं होते। हम यह तो जानते हैं कि भाखड़ा-नंगल के बनने से क्या तस्वीर बनी। यह बांध बना और हमारे सामने है, लेकिन हम यह नहीं जानते कि अगर यह नहीं बना होता तो इतिहास क्या होता। हमें इस नतीजे पर भी बहुत जल्द नहीं पहुंच जाना चाहिए कि भाखड़ा-नंगल के न होने पर कृषि के क्षेत्र में सारी उन्नति ही रुक गई होती। यह बेहद संकीर्ण आकलन होगा। वाकई भाखड़ा-नंगल के अलावा भी बड़ी तादाद में विकल्प मौजूद थे और हमने देखा कि 1940 और 1950 के दशक में इन बातों को सामने रखा भी गया था। यह सही है कि पंजाब और हरियाणा ने अनाज उत्पादन के मामले में जबरदस्त वृद्धि दिखाई, लेकिन इसका श्रेय भाखड़ा परियोजना को नहीं दिया जा सकता है। अधिकतर तो वह वृद्धि भू-जल और दशकों पुरानी नहर व्यवस्थाओं पर आधारित रही है। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि अगर भाखड़ा परियोजना नहीं भी होती, तब भी पंजाब और हरियाणा में बहुत से काम वैसे ही हुए होते, जैसे कि वे आज हैं। भाखड़ा के मामले में एक बड़ा दावा है कि इसने नए इलाकों को सींचा और पुराने सिंचित इलाकों में अतिरिक्त पानी मुहैया कराया, लेकिन इस सबके पीछे बड़ी वजह थी विभाजन।

देश के विभाजन से वह पानी भारत के उपयोग के लिए उपलब्ध हो गया, जो पहले पाकिस्तान में सतलुज घाटी परियोजना के लिए इस्तेमाल हो रहा था। इसी के साथ बंटवारे के बाद सरहिंद नहरी व्यवस्था को हरियाणा के इलाकों में फैलाया जा सका। यह काम भाखड़ा न करता, तो भी होते ही। जैसे रोपड़ और हरियाणा के स्थानों के बीच कहीं से एक नहर निकालकर हिसार, सिरसा और फतेहाबाद जिलों को पानी सीधे भी उपलब्ध कराया जा सकता था। मानूसन से सर्दियों तक पानी के बहाव का भंडारण करने की जरूरत तब ही पड़ती है, जब सिंचाई की जरूरत और नदियों के बहाव के बीच तालमेल नहीं रहता, लेकिन सतलुज नदी का बहाव अधिक संतुलित रूप से पूरे साल भर मिलता है। इसका आंशिक कारण इसमें बर्फ पिघलने से मिलने वाला पानी भी है। यानी दक्षिण भारत व मध्य भारत की नदियों से भिन्न सतलुज का 62 प्रतिशत बहाव मानसून में रहता है और 24 प्रतिशत गर्मियों में। यह एक तथ्य है कि सतलुज के बहाव और सिंचाई की जरूरत के बीच समय का एक सामंजस्यपूर्ण अर्थात गर्मी और जाड़े में भी जब सिंचाई की आवश्यकता होती है, अन्य नदियों की अपेक्षा सतलुज में पानी अधिक रहता आया है। यह तथ्य इससे भी जाहिर होता है कि अधिकांश वर्षों में भाखड़ा बांध इसकी पूरी क्षमता तक भरा नहीं जा सका। अगर हम 1975-76 से 2003-04 के बीच बांध का उच्चतम जल स्तर देखें तो पाते हैं कि जलाशय में जल स्तर इन 29 वर्षों में केवल चार वर्षों में ही 1685 फीट के निर्धारित सर्वोच्च स्तर को पार कर पाया और केवल दस वर्ष ही 1680 फीट के डिजाइन स्तर को पार कर पाया। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 1977 से ब्यास नदी का पानी भी ब्यास-सतलुज लिंक के जरिए भाखड़ा जलाशय में आने लगा था, फिर भी भाखड़ा का जलाशय पूरा नहीं भर पा रहा है। अधिक उपज वाले उन्नत कहे गए नए बीजों के आगमन के साथ ही सिंचाई के लिए पानी की मांग बहुत अधिक बढ़ गई थी। देशी बीजों के मुकाबले इन बीजों को बहुत पानी चाहिए।

इस स्थिति में शेष 30 लाख एकड़ फीट पानी से काफी कम बचना था। इसके साथ ही यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि बचे हुए शेष पानी को रोक कर भंडारण करने के लिए नदी को पूरी तरह सुखाने की कीमत चुकानी पड़ती। इसका अर्थ यह है कि नदी में से निश्चित मात्रा तक ही पानी लिया जा सकता है, उससे ज्यादा नहीं। उपलब्ध शेष पानी की मात्रा का नियंत्रण इस धारणा को ध्यान में रखकर भी किया जाता है। यह भी कहा जाता है कि भाखड़ा ने उच्च गुणवत्ता वाली सिंचाई मुहैया कराई। नहरीय सिंचाई व्यवस्था से सिंचाई प्राप्त कर रहे देश भर के किसान इस बात की अविश्वसनीयता के गवाह हैं, विशेष रूप से नहरों के आखिरी छोर पर मौजूद किसान। भाखड़ा भी इसमें अपवाद नहीं है। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य है भाखड़ा के कमान क्षेत्रों में सिंचाई की गुणवत्ता बनाए रखने में भू-जल की भूमि का। नियमित सिंचाई, विश्वसनीय आपूर्ति और वक्त पर सिंचाई की शर्तें बड़े पैमाने पर और बहुत बेहतर तरीके से ट्यूबवेलों के जरिए और भू-जल आधारित सिंचाई के जरिए ही पूरी की जा सकीं। यह सिंचाई इस मायने में नहरों से बहुत बेहतर थी। अगर भाखड़ा नहीं होता तो सतलुज घाटी परियोजना से छोड़ा गया अतिरिक्त उपलब्ध पानी सरहिंद नहर के क्षेत्रों से पहले से मौजूद सिंचाई से मिलकर बढ़ जाता। अधिक क्षेत्रफल को सिंचित करने के लिए नई नहरें बनाकर उस सारी जमीन को सींचा जा सकता था, जहां आज सिंचाई हो रही है। आज जितनी पानी इस जमीन को मिल रहा है, उससे कम मिलता तो शायद बेहतर ही होता। क्योंकि तब ऐसी कृषि उपज पद्धति का विकास होता जो इस क्षेत्र के लिए उचित होती। इसलिए ऐसा नहीं लगता कि अगर भाखड़ा बांध नहीं होता, तो पंजाब और हरियाणा की तस्वीरें आज की तुलना में कुछ बहुत अलग होतीं।