‘युग-यथार्थ और हम-तुम’

निर्धनता के अंगारों पर

गुजरते झुलसते कदम

बेबस-लाचार-व्याकुल

देखती-परखती आंखें

भूख से सिसकती गोद

देखती रही है बरसों से

लहराते बैनर

कदमताल करते आश्वासन

झूठ की जमीन पे खड़े

वादे

अट्टालिकाओं के ऊंचे-ऊंचे दरवाजे

बाहर बैठे रखवाली में पहरेदार

सड़क पर हाथ पसारे लोगों का हुजूम

राजा की कड़क आवाज में फरमान

गरीब आदमी का उत्थान लिखती

आंकड़ों की किताब

तथ्यों का गला घोंटतीं

कथ्य की शिला पट्टिकाएं

यही सब तो इस युग का यथार्थ है

जिसे भोग रहे हैं अनसुलझे प्रश्नों के बीच

हम और तुम बेबस होकर…।।