राष्ट्रपति पद शक्तिशाली हो, रबड़ स्टैंप नहीं

भानु धमीजा

सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’
लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं

संविधान अंगीकार करने के कुछ दिनों में ही नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के बीच मूक रस्साकशी आरंभ हो गई। ये लड़ाइयां अकसर कानून नकारने के राष्ट्रपति के अधिकार पर थीं। उनके पहले कार्यकाल में ही भारत तीन बार संवैधानिक संकटों से बचा, केवल इसलिए क्योंकि जब भी नेहरू ने इस्तीफे की धमकी दी तो प्रसाद पीछे हट गए। परंतु राष्ट्रपति की शक्तियों का मसला कभी हल नहीं हुआ। तब 1963 में, नेहरू और प्रसाद दोनों के विश्वासपात्र व सभा के प्रमुख सदस्य केएम मुंशी ने राष्ट्रपति की शक्तियों का मसला हमेशा के लिए हल करने का प्रयास किया। अपनी पुस्तक ‘भारतीय संविधान के तहत राष्ट्रपति’ में मुंशी ने स्पष्ट लिखा : ‘‘संविधान सभा की सोच यह नहीं थी कि वह एक शक्तिविहीन राष्ट्रपति बना रही है।’’…

लंबे समय से दबाव में चल रहा भारत का राष्ट्रपति पद अब देश का एक महत्त्वपूर्ण संरक्षक बन सकता है। गणतंत्र के आरंभ से ही अधिक शक्तिशाली प्रधानमंत्री पद ने राष्ट्रपति पद को अशक्त करना शुरू कर दिया था। एक उत्कृष्ट राष्ट्रपति स्थापित करने के संविधान सभा के इरादों के बावजूद, संविधान अंगीकार करने के 25 वर्ष के भीतर इस पद को महज नाम का ही बना डाला गया। देश के दो सर्वोच्च पदाधिकारियों में से एक का रबड़ स्टैंप होना एक महान राष्ट्र के लिए उचित नहीं। यह निश्चित रूप से समझदारी नहीं है, खासकर अब, जब देश को सरकार पर सख्त नियंत्रण की आवश्यकता है।

संवैधानिक राजशाही की समस्या

शीर्ष पर दो निर्वाचित मुखिया — प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति — वाली भारत की विशिष्ट संसदीय प्रणाली गणतंत्र के शुरू से ही असफलता का नुस्खा था। ब्रिटिश संवैधानिक विशेषज्ञों ने इस पद्धति के खिलाफ आगाह किया था। संवैधानिक प्रणालियों के विशेषज्ञ सर आइवर जेन्निंग्स ने वर्ष 1948 में लिखा : ‘‘भारतीय संविधान एक ऐसा निर्वाचित राष्ट्रपति उपलब्ध करवाता है जो प्रत्यक्ष रूप से राजा की शक्तियों के बगैर एक संवैधानिक राजा है। शायद यह एक खतरनाक प्रयोग है।’’ इसी प्रकार, एक और प्रमुख ब्रिटिश संविधान विशेषज्ञ वाल्टर बैगेहाट ने 1867 में कहा था कि राजशाही आवश्यक है, परंतु इसकी कापी करना असंभव है। उन्होंने कहा, ‘‘राजशाही तैयार करना कुछ ऐसा ही असंभव है जैसे कि एक पिता को अपनाना।’’ परंतु भारतीय संविधान निर्माता ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में राजशाही के सूक्ष्म राजनीतिक महत्त्व को समझ नहीं पाए। उन्होंने सोचा कि इस प्रणाली के लिए राजा आवश्यक नहीं है और वे ‘निर्वाचित राजा’ से काम चला सकते हैं। उनके दोनों ही आकलन गलत थे। एक गैर दलगत संस्था जिसमें समस्त शक्तियां भरोसा रखती हों, उस प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण भाग थी। और ‘संवैधानिक राजशाही’ के रूप में तैयार की गई प्रणाली एक लोकतांत्रिक गणतंत्र के लिए सही नहीं थी।

ब्रिटिश प्रणाली में राजा तीन ठोस कारणों से आवश्यक था :

क) बहुमत द्वारा उत्पीड़न के खिलाफ सुरक्षा के रूप में

ख) सदैव उपस्थित सत्ता के तौर पर, क्योंकि संसदीय सरकारें कभी भी गिर सकती हैं या बनने में लंबा समय ले सकती हैं।

ग) एक गैर दलगत प्रतीकात्मक राज्य प्रमुख के रूप में जो समूची जनता की बात कह सके।

परंतु ये समस्त शक्तियां एक विशुद्ध लोकतांत्रिक प्रणाली में समाहित नहीं की जा सकती थीं, इसलिए राजा के अधिकार लिखे नहीं गए और परंपराओं पर छोड़ दिए गए।

संविधान निर्माताओं में संघर्ष

एक ‘निर्वाचित राजा’ संभवतया संसदीय प्रणाली के ढांचे में फिट नहीं हो सकता था। इस समूची प्रणाली का आधार यह था कि जनता द्वारा निर्वाचित विधायिका एकल सरकार प्रमुख चुने। यही ‘उत्तरदायी सरकार’ की वास्तविक परिभाषा थी। आश्चर्य नहीं कि भारत के संविधान निर्माताओं को शीर्ष पर दो निर्वाचित पदाधिकारी होने की परस्पर विरोधी धारणा से जूझना पड़ा। संविधान सभा ने एक ऐसे उच्च पदस्थ राष्ट्रपति पद के लिए प्रयास किया, जिसका सरकार में कुछ महत्त्व हो। जब नेहरू ने पहली बार सभा के समक्ष राष्ट्रपति पद की व्याख्या की, तो वह स्पष्ट थे : ‘‘हम केवल नाम का ही राष्ट्रपति नहीं बनाना चाहते।’’ परंतु राष्ट्रपति कैसे चुना जाए और प्रधानमंत्री के रू-ब-रू उसकी शक्तियां क्या हों, इस मसले पर नेहरू की राय पटेल जैसे नेताओं से सर्वथा भिन्न थी। पटेल चाहते थे कि मुख्य कार्यकारियों — राष्ट्रपति और गवर्नर — को सीधे जनता द्वारा निर्वाचित किया जाए। और उन्हें विवेकाधीन शक्तियां दी जाएं। गवर्नरों के लिए उनकी सिफारिशें तो सभा ने पास भी कर दी थीं, परंतु इन्हें बाद में बदल दिया गया। मामला पटेल की प्रांतीय संविधान समिति और नेहरू की संघटन संविधान समिति की संयुक्त बैठक में उठाया गया। बैठक में अंबेडकर सहित भारत के 36 प्रख्यात पुरुषों ने प्रस्ताव पारित कर नेहरू से कहा कि वे राष्ट्रपति का चुनाव विधायिका सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से करवाने पर पुनर्विचार करें। उन्होंने यह कभी नहीं किया। और सभा के भीतर मसले का पूरी तरह कभी खुलासा नहीं हुआ।

प्रधानमंत्री के प्रभुत्व की स्थापना

राष्ट्रपति की शक्तियों का मुद्दा तो और भी लुक-छिप कर संचालित किया गया। संविधान के प्रारूप में यह स्पष्ट नहीं था कि क्या राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह के अनुरूप कार्य करने को बाध्य था। जब स्पष्टता के लिए दबाव डाला गया, प्रारूप समिति ने सूचित किया कि राष्ट्रपति की शक्तियों की व्याख्या को संविधान में एक ‘अनुदेश पत्र’ जोड़ा जाएगा। परंतु तभी अचानक, प्रारूप प्रधानमंत्री का प्रभुत्व स्थापित करने की दिशा में झुकने लगा। पहले, इसमें से वह प्रावधान हटा दिया जिसमें राष्ट्रपति को कानून नकारने का अधिकार दिया था। संविधान के विख्यात इतिहासकार ग्रैनविल ऑस्टिन लिखते हैं, ‘‘सभा की बहसों में कहीं भी इस असाधारण गतिविधि का कोई स्पष्टीकरण नहीं है।’’ तब, एक और चौंकाने वाली तबदीली के तहत, अनुदेश पत्र सिरे से हटा दिया गया। ‘‘क्यों? सभा ने इसका कभी कोई कारण नहीं बताया,’’ ऐसा ऑस्टिन ने लिखा।

राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री में संघर्ष

शक्तियों की स्पष्टता के अभाव में एक ‘निर्वाचित राजा’ का यह भारतीय प्रयोग तुरंत असफल होने लगा। संविधान अंगीकार करने के कुछ दिनों में ही नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के बीच मूक रस्साकशी आरंभ हो गई। ये लड़ाइयां अकसर कानून नकारने के राष्ट्रपति के अधिकार पर थीं। उनके पहले कार्यकाल में ही भारत तीन बार संवैधानिक संकटों से बचा, केवल इसलिए क्योंकि जब भी नेहरू ने इस्तीफे की धमकी दी तो प्रसाद पीछे हट गए। परंतु राष्ट्रपति की शक्तियों का मसला कभी हल नहीं हुआ। तब 1963 में, नेहरू और प्रसाद दोनों के विश्वासपात्र व सभा के प्रमुख सदस्य केएम मुंशी ने राष्ट्रपति की शक्तियों का मसला हमेशा के लिए हल करने का प्रयास किया। अपनी पुस्तक ‘भारतीय संविधान के तहत राष्ट्रपति’ में मुंशी ने स्पष्ट लिखा : ‘‘संविधान सभा की सोच यह नहीं थी कि वह एक शक्तिविहीन राष्ट्रपति बना रही है।’’ यह सब हालांकि 1976 में अर्थहीन हो गया, जब इंदिरा गांधी के 42वें संशोधन ने राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की ‘सलाह’ के अनुरूप कार्य करने को विवश कर दिया। उनके बाद आई जनता सरकार ने इस घिनौने प्रावधान को निरस्त न करने का रास्ता चुना। उसने राष्ट्रपति को केवल यह अधिकार दिया कि वह प्रधानमंत्री से पुनर्विचार को कह सकता है। फिर जो कहा जाए राष्ट्रपति को वही करना होगा।

‘सलाह’ और ‘आदेश’ में अंतर

परिणामस्वरूप, आज भारत का संविधान राष्ट्रपति की शक्तियों के विषय में विसंगतियों से परिपूर्ण है। यह उसे प्रधानमंत्री को नियुक्त करने और प्रधानमंत्री की ‘‘सलाह’’ पर अन्य मंत्री ‘‘नियुक्त’’ करने की शक्ति देता है (अनुच्छेद 75)। तो मंत्रियों का नियोक्ता कौन है?

राष्ट्रपति मंत्री परिषद का रचनाकार है, जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होगा और जो राष्ट्रपति को ‘‘सहायता और सलाह’’ देगी, और उस सलाह के अनुरूप राष्ट्रपति को ‘‘कार्य करना होगा’’ (अनुच्छेद 74)। तो, ‘सलाह’ और ‘आदेश’ में क्या अंतर है? क्या इससे नियोक्ता अपने मातहत के अधीन नहीं हो गया है?

इसी प्रकार, संविधान समस्त कार्यकारी शक्तियां और सेना की कमान के लिए राष्ट्रपति को अधिकृत करता है (अनुच्छेद 53), परंतु तदोपरांत उससे चाहता है कि वह वही करे जो प्रधानमंत्री कहे। तो, सरकार और सेना की कमान किसके पास है? यह सब हास्यास्पद और तर्कविहीन है।

राष्ट्रपति है ही क्यों ?

यह एक तर्कसंगत प्रश्न है कि भारत में राष्ट्रपति पद है ही क्यों। वर्ष 2015 में एक आरटीआई में पूछा गया कि हम राष्ट्रपति पर कितना खर्च करते हैं। अनुमानित लागत कल्पना से भी परे 100 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष थी। सच्चाई यह है कि प्रधानमंत्री पद को संतुलित करने के लिए भारत को एक और सत्ता केंद्र की बेतहाशा आवश्यकता है। यही संविधान सभा की भी मूल इच्छा थी। एक ‘निर्वाचित राजा’ के पीछे तर्क — बहुमत को मनमानी से रोकने के लिए एक संवैधानिक मुखिया; निर्वाचित सरकार के अभाव में देश चलाने के लिए एक प्राधिकारी; समूची जनता के प्रतिनिधित्व को एक गैर दलगत राष्ट्र प्रमुख, और अनचाहे कानून रोकने के लिए एक शक्ति — आज के भारत की अत्यंत आवश्यकता है। समय आ गया है कि भारत का राष्ट्रपति भारत के लोकतंत्र के लिए कार्यरत हो।

साभार : दि क्विंट