लोकतंत्र को सशक्त विपक्षी नेताओं की जरूरत

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

विभिन्न राजनीतिक दल अपनी रणनीति की विवेचना करने के बजाय अब तक पूरी तरह से नाकाम रहे महागठबंधन के पीछे आंखें मूंदकर कदमताल करते रहे हैं। मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए संगठित संघर्ष एक आशाहीन तरीका है। इस तरह का एजेंडा देश की जनता में परोसा जाए तो भी उसका इन दलों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। जनता की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है कि मोदी को किस तरह से हटाया जाए, बल्कि उसे तो देशहित में नीतियां व कार्य चाहिए…

हाल ही में पांच में से चार राज्यों में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा है। इसके बाद से सत्ता के गलियारों में यह डर जाहिर होने लगा है कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का सिमटता वजूद महज कांग्रेस मुक्त भारत ही नहीं, बल्कि विरोध मुक्त भारत का मार्ग प्रशस्त करेगा। लोकतंत्र के लिहाज से ये संकेत कतई शुभ नहीं माने जा सकते। इसलिए सभी विपक्षी दलों के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे न केवल महागठबंधन तैयार करें, बल्कि अपनी कार्यशैली को विकसित करते हुए कुछ ऐसे नेताओं को गढ़ें, जो दक्षता एवं योग्यता से मेल खाते हों। विभिन्न राजनीतिक दल अपनी रणनीति की विवेचना करने के बजाय अब तक पूरी तरह से नाकाम रहे महागठबंधन के पीछे आंखें मूंदकर कदमताल करते रहे हैं। मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए संगठित संघर्ष एक आशाहीन तरीका है। इस तरह का एजेंडा देश की जनता में परोसा जाए तो भी उसका इन दलों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। जनता की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है कि मोदी को किस तरह से हटाया जाए, बल्कि उसे तो देशहित में नीतियां व कार्य चाहिए। लगातार हार झेलते हुए आज विपक्ष में इस कद्र हीनभावना पैदा हो चुकी है कि इसे लगता है यदि राष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ के जरिए चुनावों में मोदी को हराने की कोशिश करेगी, तो जनता के लिए यह कोई आकर्षक एजेंडा नहीं होगा।

यह स्थिति घमंडी नेताओं और जमीनी हालात के बीच के फासले को भी दर्शाती है। दिल्ली में कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कुछ अंदर की बातें बताते हुए कहा, ‘किसी के पास भी आपको सुनने और विभिन्न मसलों पर कार्रवाई करने का वक्त नहीं है। दस-दस सालों से ये नेता राज्यसभा में बैठे हुए हैं और जनता क्या चाहती है, उससे इनको कोई सरोकार नहीं है।’ इससे भी बदतर यह कि कई राज्यों में मिली हार को लेकर भी उन्हें कोई शर्म-हया नहीं है और जब कभी उनके प्रदर्शन के बारे में पूछा जाता है, तो वे बड़ी खुशी के साथ बता देते हैं कि हमारा वोट शेयर इस बार भी कम नहीं हुआ है या उत्तर प्रदेश की कोई बात नहीं, हमने पंजाब के चुनाव जीते हैं। राज्य स्तर के जो नेता केंद्र में परामर्श के लिए आते हैं, उन्हें इस तरह की बातें बताई जाती हैं और उनका हाई कमान सचिवालय में ‘कोई चिंता नहीं’ का पाठ रटने वाले ऐसे लोगों की भीड़ से पाला पड़ता है। हमें पार्टी में सहानुभूति रखने वाले नेताओं को तैयार करना होगा। विपक्ष को ऐसे जवाबदेह नेता गढ़ने होंगे, जो विफल रहने पर अपनी जवाबदेही को स्वीकार कर सकें और जब वे विजयी हों, तो जनता के साथ मिलकर उसका जश्न मना सकें। जवाहरलाल नेहरू के समय में भी कांग्रेस को सदन में प्रचंड बहुमत हासिल था, लेकिन बहुत सी चीजों को नए ढंग से सोचने के लिए उन्होंने जबरदस्त विपक्षी नेताओं की चाहत बयां की थी। मैंने अशोक मेहता को संसद में बोलते हुए सुना है और उस समय सदन में कितनी तर्कपूर्ण चर्चा होती थी। राम मनोहर लोहिया ने गरीब आदमी की आय का मसला सदन में उठाकर सरकार को गरीबी की स्थिति के बारे में गंभीरता से सोचने के लिए मजबूर किया था। मधु लिमये ने विशेषाधिकार प्रस्तावों को लेकर अपनी एक विशेष पहचान बना ली थी। यहां तक कि अमृत डांगे और ज्योति बसु की जिरह को बड़े ध्यान से सुना जाता था और राज्य की नीतियों पर उनका खासा प्रभाव रहता था। जय प्रकाश नारायण और सौम्य प्रसाद मुखर्जी उन दिनों कद्दावर नेता होते थे। आज हमारे पास क्या है? बौद्धिक संपदा के नाम पर विपक्षी दलों के पास लालू की ठिठोलियां हैं या कपिल सिब्बल का शून्य क्षति सिद्धांत।

केजरीवाल भी अब तक कई तरह की कलाबाजियां दिखाकर अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। कम्युनिस्ट नेता न केवल संख्याबल में सिमट रहे हैं, बल्कि बौद्धिक क्षमता और तर्कपूर्ण बहस के जरिए सरकार की मुश्किलें बढ़ाने में भी ये फिसड्डी साबित हो रहे हैं। एक जेएनयू की भीड़ को छोड़ दें, तो डी. राजा और सिताराम येचुरी का जनता के साथ जुड़ाव बेहद सीमित सा रहा है। इसके बाद विपक्ष के पास वाकआउट या सदन में शोर-शराबे के अलावा दूसरा कोई चारा ही नहीं रह जाता। मानव संसाधन विकास विषय में हम पढ़ाते हैं कि नेतृत्व के विकास का मतलब प्रतिभा का अनावरण है। इसके अंतर्गत किसी प्रतिभा को ढकने वाली अपरिपक्वता को हटाना है, ताकि वह बेहतर ढंग से अपना विकास कर सके। यह अप्रासंगिक हो चुके नेतृत्व की छाया से मुक्त होना भी है। यदि विपक्ष को प्रभावशाली बनना है, तो इसे सदन में नेतृत्व संबंधी इन खूबियों को लाना होगा। यहां तक कि इसे साफ छवि वाले प्रवक्ताओं के तौर पर भी युवा या परिष्कृत नेताआें को आगे लाना होगा।

प्रतिभा अनावरण के फार्मूले को अपनाते हुए विपक्षी दल दूसरी पंक्ति के नेताओं को आगे क्यों नहीं ला पाते हैं। अगर पूर्वोत्तर कांग्रेस ने यह रास्ता पकड़ा होता, तो इसे इतनी बुरी तरह से हार न झेलनी पड़ती। आखिर हेमंत बिस्वा शर्मा को अनसुना क्यों किया गया, जिसके कारण उन्हें पार्टी छोड़कर भाजपा में जाना पड़ा और वहां जाकर उन्होंने पारंपरिक तौर पर पूर्वोत्तर में मजबूत रही कांग्रेस को उखाड़ फेंकने की रणनीति भी गढ़ ली है। आज अन्य क्षेत्रों में भी इसी तरह की स्थिति देखने को मिलती है। हालांकि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति संतोषजनक ही रही है और यदि यहां जरूरत के मुताबिक बदलाव किए जाएं, तो इसका लाभ पार्टी को मिल सकता है। हिमाचल में कांग्रेस अपनी सत्ता को बचाए रख सकती है, बशर्ते यहां युवा, साफ छवि वाले और कौल सिंह, आशा कुमारी, विप्लव ठाकुर सरीखे राज्य स्तर के नेताओं को बड़ी जिम्मेदारियों के लिए तैयार करे। भाजपा ने पहले ही जेपी नड्डा और सतपाल सत्ती सरीखे नेता तैयार कर लिए हैं। लेकिन कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों की स्थिति में यथास्थिति के टूटने के कोई संकेत नहीं मिल रहे। विपक्ष नीतीश कुमार को राष्ट्रीय मंच पर ला सकता है और वह इस पूरे परिदृश्य में जान फूंकने में हर तरह से सक्षम हैं, लेकिन गलत साथी चुनकर वह भी ढुलमुल कानून व्यवस्था के लिए जाने जाने वाले बिहार के सियासी कीचड़ में फंसे हुए हैं। इसके बावजूद वह विपक्ष को सही राह दिखाने के लिए उपयुक्त विकल्प हैं। कम्युनिष्ट नेता भी किसी मार्गदर्शक मंडली में शामिल होकर युवा नेताओं को आगे आने का अवसर क्यों नहीं देते?

लोकतंत्र की रक्षा के लिए विपक्ष का प्रभावी होना अनिवार्य शर्त है, लेकिन इसके लिए प्रासंगिक नेताओं की महत्ती जरूरत रहेगी, जो सरकार के साथ सामंजस्य बनाने की योग्यता रखते हों। यह लक्ष्य कठिन जरूर है, लेकिन यदि ये सब नेता मिल-बैठकर नए सिरे से विचार-विमर्श नहीं करते और कुछ विश्वसनीय नेताओं को आगे नहीं बढ़ाते, तो इन दलों को डूबना तय है। विपक्षी दल यदि मिटना ही चाहते हैं, तो बिना किसी सामान्य एजेंडे, सिद्धांतों या विचारधारा वाले अरसे से विफल होते आ रहे महागठबंधन के खेल को भी जारी रख सकते हैं।

बस स्टैंड

पहला यात्री : ईवीएम के बारे में कांग्रेस की क्या सोच है?

दूसरा यात्री : कांग्रेस का मानना है कि यह मूडी है। इसी कारण कर्नाटक में तो काम कर जाती है और हिमाचल में फेल हो जाती है।

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