विजन की परिभाषा में भाजपा

राजनीति की आंखें जितनी खुलेंगी, उतना ही विजन स्पष्ट होगा। विडंबना यह है कि संकीर्णता की सतह पर ही हिमाचली सियासत ने अपने दुर्ग चुनने की कोशिश की और विजन हारता रहा। कुछ नेता इससे हटकर चले, तो लोगों ने उन्हें सिर पर बैठा लिया, लेकिन हिमाचली सियासत को छोटा करने के लिए क्षेत्रवाद, परिवारवाद, व्यक्तिवाद, कर्मचारी राजनीति व पार्टियों के अलोकतांत्रिक व्यवहार ने सदैव अपना जाल फैलाया। विजन डाक्यूमेंट की नई परिभाषा में पुनः एक बार हिमाचल भाजपा खुद को तैयार कर रही है। यह राजनीति को पलटने की कवायद सरीखा है और गैर राजनीतिक उद्देश्यों के लिए अधिकतम जगह छोड़ने का जोखिम भी। विजन से राजनीति नहीं चलती, हालांकि राजनीति से विजन सीधा हो सकता है। राजनीति के कितने ही चितेरे विजनरी थे, लेकिन सत्ता की भागदौड़ में पार्टियों ने उन्हें भी हाशियों पर टिका दिया। बावजूद इसके यह प्रशंसा का विषय है कि हिमाचल भाजपा चुनावी घोषणा पत्र का मिलन विजन डाक्यूमेंट से करा रही है या यूं कहें कि विजन की गंगा में अब वे तमाम डुबकियां लगाई जाएंगी, जिनके सहारे सत्ता तक पहुंचा जा सकता है। यह वचनबद्धता के प्रतीक की तरह हो सकता है या वाकई इससे हिमाचल की राजनीतिक दरगाह बदल जाएगी। विधायक रणधीर शर्मा की अध्यक्षता में पार्टी के पांव विजन डाक्यूमेंट के साथ नए सिरे से देखे जाएंगे और यह कसौटी किसी एक शख्स के बजाय दस्तावेज को सूत्रधार बनाने की दिशा देख सकती है। इससे पहले भी पार्टियां अपने राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक परिदृश्य में टोह लेती रही हैं, लेकिन भाजपा ने विजन की परिपाटी में बुद्धिजीवी, अनुभवी, कर्मचारी, प्रोफेशनल व विविध उपलब्धियों से सुसज्जित समाज से राफ्ता कायम करके, सुझावों की कोख से निकले अमृत मोतियों को चुनने का खाका बनाया है। यहां राजनीतिक भिन्नता और विविधता के पैगाम भी स्वाभाविक तौर पर नत्थी होंगे। भाजपा और कांग्रेस के बीच संगठनात्मक अंतर को समझना होगा, क्योंकि राजनीतिक व्यवहार के भाईचारे में शाह की पार्टी अलग मंच पर खड़ी है। कांग्रेस के भीतर भी बुद्धिजीवियों व प्रबुद्ध लोगों की कमी नहीं रही है, लेकिन बौद्धिक प्रकोष्ठ जैसी इकाइयों को नजरअंदाज करके पार्टी ने अपना मानसिक धरातल ही रेगिस्तान बना दिया। हिमाचल में राजनीतिक विजन को हम कुछ अग्रणी नेताओं के संस्कारों में देखते रहे हैं और यह दौर स्व. वाईएस परमार के मुख्यमंत्रित्व से पहले एक ऐसे हिमाचल की उत्पत्ति रही है, जो विभिन्न समुदायों और रियासतों को जोड़कर बना। जब पंजाब को सूबे के नाम पर सीमित किया जा रहा था, तो स्व. परमार ने पर्वतीय अंचल का विस्तार करके कांगड़ा जनपद की महत्त्वाकांक्षा को हिमाचल के सीने से लगा लिया। मौजूदा मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने विकास को रेखांकित करते हुए भावनात्मक एकता के जिस स्वरूप पर हिमाचल की पुनर्रचना की, वहां शिमला के अलावा भी प्रदेश की मंजिलें बढ़ती गईं और इस विजन की दरकार में दूसरी राजधानी के दर्जे को पढ़े बिना भाजपा अपने विजन को शायद ही मुकम्मल कर पाएगी। प्रदेश में प्रशासन, शिक्षा व चिकित्सा के विस्तार का जिस तरह रेखांकन इस बार वीरभद्र सरकार ने किया है, वहां विजन का घड़ा भरा है या चिकना, यह समझना अभी बाकी है। पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार के विजन की कई जमातें व जन्नतें पूरा देश देख चुका है, लेकिन आर्थिक आत्मसम्मान के लहजे में केंद्र को दो टूक कहने की रिवायत वही शुरू कर पाए। प्रदेश को आत्मानुशासन की सीख, कार्य संस्कृति की नसीहत और आत्मसंबल से चलने की रूपरेखा में बिजली, पानी और पर्यटन पहली बार नजर आया। विद्युत उत्पादन में मुफ्त बिजली प्राप्त करने की शर्तें अगर आज हिमाचल के खजाने को भर रही हैं, तो ऐसी राष्ट्रीय सोच की कार्यशाला शांता कुमार ही लगाते रहे। पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने भाजपा के नैन-नक्श बदलते हुए, कांग्रेस के एकछत्र समुदाय में सियासी बदलाव की बेचैनी पैदा की, तो हिमाचली संदर्भों में भाजपा को नए शासक की तरह पेश किया। पोलिथीन मुक्त हिमाचल की परिकल्पना, वाटर हार्वेस्टिंग व कार्बन क्रेडिट जैसे नवाचार को आगे बढ़ाया, तो पहली बार यह प्रदेश खुद को खेल के मैदान पर भी देखने लगा। मुख्यमंत्रियों के अलावा पंडित सुखराम के विजन की परिपाटी में आज का डिजिटल हिमाचल जहां खड़ा है, वह असंभव होता। डा. राजीव बिंदल ने हिमाचल को आयुर्वेद की जड़ों से जोड़ने की उल्लेखनीय पहल की, तो बतौर केंद्रीय मंत्री जगत प्रकाश नड्डा का विजन पूरा देश नए परिप्रेक्ष्य में देख रहा है। इससे पूर्व हिमाचल के जंगलों को हर्बल सामग्री से भरने और घर-घर औषधीय पौधे उगाने की उनकी मुहिम को हमें निरंतरता देनी होगी। वीरभद्र सिंह सरकार में जीएस बाली, कौल सिंह व सुधीर शर्मा जैसे मंत्रियों की बदौलत कुछ मॉडल बने हैं। परिवहन सेवाओं के पर्वतीय मॉडल में बाली ने उत्तर भारतीय राज्यों को पछाड़कर अगर श्रेय कमाया, तो शहरी विकास की प्रासंगिकता में सुधीर शर्मा ने साहसिक कदम उठाए। आज अगर अंडर ग्राउंड डस्टबिन के हिमाचली मॉडल को गुजरात जैसे राज्य भी अपनाने को आतुर हैं, तो यह सही विजन को तसदीक करता है।