विशिष्‍ट दर्शन के वल्‍लभाचार्य

जगत को पूरी तरह मिथ्या मानने के दर्शन से पैदा हुई सामाजिक विकृतियों के प्रति वल्लभाचार्य पूरी तरह से सजग थे। उन्होंने अपने दर्शन के जरिए जगत और ब्रह्म के बीच स्थापित विरोधाभास को ध्वस्त करने की कोशिश की है। उन्होंने जगत और ब्रह्म को सत्य का हिस्सा माना है और इस तरह, हर स्थिति में जगत के प्रति उदासीनता बरतने की प्रवृत्ति पर विराम लगाने की कोशिश की। उनके दर्शन के कारण दार्शनिक ठहराव से गुजर रहे देश में फिर से गतिशीलता आ सकी…

महान दार्शनिक वल्लभाचार्य अपने दार्शनिक अवदान के कारण तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, उनके अखिल भारतीय जीवन में भी देश के लिए कई प्रासंगिक सूत्र निहित हैं। वह पैदा कहीं और हुए, शिक्षा कहीं और पाई और कई बार अखिल भारतीय यात्राएं कीं। इस कारण उनका व्यक्तित्व और चिंतन अखिल भारतीय आकार में उपस्थित होता है। पुष्टि मार्ग के संस्थापक महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को संवत् 1535 अर्थात सन् 1479 ई. को रायपुर जिले में स्थित महातीर्थ राजिम के पास चंपारण्य (चंपारण) में हुआ था। बाद में वह अपने पिता के साथ काशी आकर बसे। महाप्रभु वल्लभाचार्य के पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट तथा माता का नाम इल्लमा गारू था। वह भारद्वाज गोत्र के तैलंग ब्राह्मण थे, कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा के अंतर्गत इनका भारद्वाज गोत्र था। वह समृद्ध परिवार के थे और उनके अधिकांश संबंधी दक्षिण के आंध्र प्रदेश में गोदावरी के तट पर कांकरवाड ग्राम में निवास करते थे। उनकी दो बहनें और तीन भाई थे। बड़े भाई का नाम रामकृष्ण भट्ट था। वह माधवेंद्र पुरी के शिष्य और दक्षिण के किसी मठ के अधिपति थे। संवत् 1568 में वल्लभाचार्य जी बदरीनाथ धाम की यात्रा के समय वह उनके साथ थे। अपने उत्तर जीवन में उन्होंने संन्यास ग्रहण करते हुए केशवपुरी नाम धारण किया। वल्लभाचार्य जी के छोटे भाई रामचंद्र और विश्वनाथ थे। रामचंद्र भट्ट बड़े विद्वान और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनके एक चाचा ने उन्हें गोद ले लिया था और वह अपने पालक पिता के साथ अयोध्या में निवास करते थे। वल्लभाचार्य की शिक्षा पांच वर्ष की अवस्था में प्रारंभ हुई। श्री रुद्र संप्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षर गोपाल मंत्र की दीक्षा दी गई, त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेंद्र तीर्थ से प्राप्त हुई। उन्होंने काशी और जगदीश पुरी में अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी। उन्होंने एकमात्र शब्द को ही प्रमाण बतलाया और प्रस्थान चतुष्टयी (वेद, बह्मसूत्र, गीता और भागवत) के आधार पर साकार बह्म के विरुद्ध धर्माश्रयत्व और जगत का सत्यत्व सिद्ध किया तथा मायावाद का खंडन किया। श्री वल्लभाचार्य का सिद्धांत है कि जो सत्य तत्त्व है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। जगत भी ब्रह्म का अविकृत परिणाम होने से ब्रह्मरूप ही है, सत्य है इसलिए उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। उसका केवल आविर्भाव और तिरोभाव होता है। सृष्टि के पूर्व और प्रलय की स्थिति में जगत अव्यक्त होता है, यह उसके तिरोभाव की स्थिति होती है। जब सृष्टि की रचना होती है तो जगत पुनः व्यक्त हो जाता है, यह उसके आविर्भाव की स्थिति है। तिरोभाव की स्थिति में जगत अपने कारण रूप ब्रह्म में अव्यक्तावस्था में लीन रहता है। श्री वल्लभाचार्य का मत है कि जब ब्रह्म  ( ब्रह्म भगवान  कृष्ण) प्रपंच में (जगत के रूप में) रमण करना चाहते हैं, तो वह अनंत रूप-नाम के भेद से स्वयं ही जगत रूप बनकर क्रिया करने लगते हैं। चूंकि जगत रूप में भगवान ही क्रिया करते हैं, इसलिए जगत भगवान  का ही रूप है और इसी कारण वह सत्य है, मिथ्या या मायिक नहीं है। शुद्धाद्वैत दर्शन में जगत और संसार को भिन्न माना जाता है। भगवान  जगत के अभिन्न-निमित्त-उपादान कारण हैं। वह जगत रूप में प्रकट हुए हैं, इसलिए जगत भगवान  का रूप है, सत्य है। जगत भगवान  की रचना है, कृति है। संसार भगवान  की रचना नहीं है। वास्तव में संसार उत्पन्न ही नहीं होता, वह काल्पनिक है। अविद्याग्रस्त जीव ‘यह मैं हूं’, ‘यह मेरा है’, ऐसी कल्पना कर लेता है। इस प्रकार जीव स्वयं अहं और ममता का घेरा बनाकर अहंता-ममतात्मक संसार की कल्पना कर लेता है। वह अपने अहंता-ममतात्मक संसार में रचा-बसा रहता है, उसी में फंसे रहते हुए बंधन में पड़ जाता है। जीव के द्वारा अज्ञानवश रचा गया यह संसार काल्पनिक, असत्य और नाशवान होता है। अपने इन सिद्धांतों की स्थापना के लिए उन्होंने तीन बार पूरे भारत का भ्रमण किया तथा विद्वानों से शास्त्रार्थ करके अपने सिद्धांतों का प्रचार किया। ये यात्राएं लगभग उन्नीस वर्षों में पूरी हुई। प्रथम संवत् 1553, दूसरी संवत् 1558 तथा तीसरी संवत् 1566 में। अपनी यात्राओं के दौरान मथुरा, गोवर्धन आदि स्थानों में उन्होंने श्रीनाथजी की पूजा आदि की व्यवस्था की तथा श्रीकृष्ण के प्रति निष्काम भक्ति के लिए लोगों को प्रेरित किया। अपनी दूसरी  यात्रा के समय उनका विवाह महालक्ष्मी के साथ संपन्न हुआ। विवाह के पश्चात वह प्रयाग के निकट यमुना के तट पर स्थित अडैल ग्राम में बस गए। उनके दो पुत्र हुए। बड़े पुत्र गोपीनाथ जी का जन्म संवत्् 1568 की आश्विन कृष्ण 12 को अड़ैल में और छोटे पुत्र विट्ठलनाथ जी का जन्म संवत् 1572 की पौष कृष्ण 9 को चरणाट में। दोनों पुत्र अपने पिता के समान विद्वान और धर्मनिष्ठ थे। फिर वह वृंदावन चले गए और भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में निमग्न रहे। वहीं उन्हें बालगोपाल के रूप में भगवान श्री कृष्ण के दर्शन हुए। संवत् 1556 में महाप्रभु की प्रेरणा से गिरिराज में श्रीनाथ जी के विशाल मंदिर का निर्माण हुआ। इस मंदिर को पूरा होने में 20 वर्ष लगे। काशी के हनुमान घाट पर आषाढ़ शुक्ल तृतीया संवत् 1587 के दिन श्री वल्लभाचार्यजी ने दोनों पुत्र श्री गोपीनाथजी और श्री विट्ठलनाथजी तथा प्रमुख भक्त दामोदरदास हरसानी एवं अन्य वैष्णवजनों की उपस्थिति में अंतिम शिक्षा दी। वह 40 दिन तक निराहार रहे, मौन धारण कर लिया और परम आनंद की स्थिति में आषाढ़ शुक्ल 3 संवत 1587 को जल समाधि ले ली।