ऋण लेना मजबूरी या आदत!

(कंचन शर्मा, नालागढ़)

अभी कुछ दिन पहले ही हिमाचल सरकार ने 700 करोड़ का ऋण उठाया था और अब सरकार फिर 500 करोड़ का कर्ज 10 साल की अवधी के लिए लेगी। यानी कि दूसरे-तीसरे महीने के बाद ऋण लेना ही पड़ रहा है। बिना ऋण लिए सरकार का काम चलने वाला भी नही। वैसे चुनावी वर्ष में सरकार ने खुले दिल से घोषणाएं कर दि हैं और पलट कर एक बार भी नही देखा कि इन घोषणाआों को पूरा करने के लिए पैसा है भी नहीं।  प्रदेश ने अपने पैर चादर के बाहर फैला दिए हैं। इस वित वर्ष में 3500 करोड़ रूपया अदायगी में जांएगे। और अंदाजा लगाया जा सकता है कि यही 3500 करोड़ अगर किसी विकास कार्य में लगाया होता,तो प्रदेश की तस्वीर बदलती। पहले ऋण लेना सरकार की मजबूरी हो सकती थी और अब यही मजबूरी उसकी आदत बन चुकी है। हर मंत्रिमंडल की बेठक में नौकरियों का पिटारा खुलता है और अभी जो कर्मचारी व पेंशनर्ज हैं उनके लिए वेतन और पेंशन का भुक्तान करना सरकार के लिए मुशिकल हो रहा है। सरकार को खुद पता नही कि जो घोषणांए कर रही है उसके लिए पैसा कहां से आएगा। बस चुनावी वर्ष है जो जनता मांगे दे दो,जीत गए तो संभाल लेंगे नही जीते तो दुसरी पार्टी भुगतेगी। दोनोें दलों की यही सोच रहती है और यही सोच कर्ज का कद बढ़ाती है। हर कार्यकाल कर्ज का कद बढ़ा जाता है।

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