कलम का सिपाही बनाम सिपाही की कलम

किसी कारणवश, समाचार पत्रों  में ऐसी गंभीर अकादमिक रूप से अच्छे स्तर की सामग्री नहीं छप रही है, जिसे रोजमर्रा पढ़कर आप प्रतियोगी परीक्षाओं में उपयोग कर सकें। याद करें कुछ वर्ष पूर्व की ही बात, जब मां-बाप अपना पेट काटकर अतिरिक्त अखबार या पहला अखबार इसलिए लगाते थे कि घर के बच्चे- बच्ची को किसी प्रतियोगिता में बैठना होता था, और अखबार उनको तैयारी में सहयोग कर रहे होते थे।  आज मां बाप अखबारों में खासकर भाषायी अखबारों में वह सब नहीं पा रहे…

याद करें परतंत्र भारत के भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को ,पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे समाज निर्माताओं को या जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी जैसे अनेकों नेक राजनीतिक नेताओं को। इनमें आप एक समानता भी पाएंगे। यह सभी समाचार पत्र पत्रिकाओं में संपादन या लेखन से जुड़े थे। आजादी के ये महान नायक कलम के सिपाही होने की स्मरणीय भूमिका में भी रहे। ऐसे अनगिनत व अनाम लिखने वाले क्रांतिवीरों को व उन जैसों के लिखे लेखों को जो छापते थे उनको भी साहसी होना पड़ता था। और कभी कभी जो ऐसे लेखन की पत्र- पत्रिका वितरित करते थे, उनको भी जोखिम झेलते हुए वितरण करना होता था। इनके लिखें को पढ़ने वाले व सहेजने वाले भी सरकार, बहादुर राजा महाराजाओं तथा उनके भेदियों की नजर व निगरानी में होते थे। गुलामी के दिनों में खासकर देशी रियासतों में तो बाहर से आने वाली पत्र- पत्रिकाओं को रियासत में लाने पर व पहुंचाने में भी पाबंदी थी। शासकों को डर तख्ता पलट वाली बगावत का ही नहीं होता था, बल्कि डर आधुनिक विचारों का रियासतों में पहुंचने का भी होता था। सामाजिक बगावत का भी अंदेशा इन्हें सालता था । लेखनियों से निकले विचारों से बंधुआ मजदूरों, कर्जदारों, महिलाओं के अधिकारों का स्वतंत्रता के साथ उन्हें अपनी निरंकुशता व संपन्नता पर आने वाली चुनौती का डर लगता था। यह सब एक तरह से कलम के सिपाहियों का व सिपाहियों के कलम का डर  होता था। तोपों का सामना करने के लिए अखबार ताकत देते थे। तत्कालीन टिहरी रियासत में सुमन जी के नेतृत्व में जो राजशाही के विरुद्ध युवा उभार आया और बाद में भारत को आजादी मिलने के बाद भी टिहरीवासियों की राजशाही के विरुद्ध स्वशासन की निर्णायक मांग हुई थी, उसमें तत्कालीन ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊं की पत्रकारिता व समाचार पत्रों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। कलम के लिखे से जनता की आवाज कुचलने वाले बहुत डरते हैं। अपने देश में भी जिस रात अचानक एमर्जेंसी लगी थी, उस रात ही प्रेसों पर पहरा व सेंसर भी लग गया था । अखबारों का छपना व बंटना खौफ  के साए में हो रहा था। पहले की छपी पत्रिकाओं के उन अंश पर काली स्याही फिरवाई गई, जिनसे एमर्जेंसी के विरुद्ध लोगों के खड़े होने का डर था। मुझे याद है कि एक प्रसिद्ध कहानी पत्रिका का जो अंक तब तैयार हो रहा था, जब अगले दिन स्टैंडों पर आया तो कहानियों में पक्तियों को जगह- जगह काला कर दिया गया था। अब कई सालों से यह पत्रिका बंद हो गई है। ऐसे ही परिप्रेक्ष्य में आज पत्रकार जगत के बीच भी आत्मावलोकन की जरूरत है। क्योंकि आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सामने लिखने वालों, समाचार जगत से संबंधित लोगों की साख पर भी बुरी नजर है। बिकाऊ और बिके के लांछन भी, कुछेक के कारण ईमानदारों को भी बिना किसी प्रमाण के सहने पड़ रहे हैं।  निःसंदेह स्थितियां कभी-कभी ऐसी भी आ जाती हैं कि समाचार पत्रों में विज्ञापनों की भीड़ में समाचार ढूंढने पड़ते हैं। ऐसे में समाचार भेजने वाले संवादाताओं को अपने भेजे समाचारों को भी शायद ढूंढना पड़ता है या लगवाना पड़ता है। हालांकि उन न छप सकने वाले समाचारों में कुछ समाचार ऐसे भी रहते हैं, जिनमें दो लाइन के समाचारों के पीछे दस लाइन अलाने जी-फलाने जी के नामों का जिक्र होता है। इन स्थितियों तक भी तो समाचार पत्रों में पैसा लगाने वालों ने ही पहुंचाया, जो होटलियर हो सकता है,  बिल्डर हो सकता है और माफिया भी हो सकता है या नेता भी हो सकता है । उसे समाचारों से ज्यादा विज्ञापनों की जरूरत है। ऐसे में छपास वालों की भूख मिटाने में उसे कोई गुरेज नहीं। अब वह पन्नाई अखबार निकाल रहा है। आपका नाम अपके कस्बे के अखबार में जरूर छपा होगा, आपकी खबर भी छपी होगी, परंतु उसी अखबार में बीस तीस किलोमीटर दूर जो कस्बाई पन्ने रहे होंगे, वहां किसी ने आपकी खबर, आपका नाम देखा भी नहीं होगा। किंतु अखबार ऐसे ही नाम वीर और बयान बहादुरों की छपास की भूख के कारण ही कस्बाई पन्ने- दर- पन्ने को जोड़ कर फलफूल रहे हैं । इस तरह के स्थानीय दबावों के कारण अखबारों में आंदोलनों व सामाजिक बदलाव के अभियानों की और सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ  आक्रोश की धार कभी पैनी ही नहीं हो पाती है । पाठकों को लगता है कि हमीं आंदोलनरत हैं बाकी जगह सन्नाटा है। आप टूटन और थकान या एकजुटता की कमी महसूस करने लगते हैं । यही नहीं, चुनावों के समय लगता है बस एक दो राजनीतिक दल ही हैं, बाकियों की तो सभा भी नहीं हो रही है। एक बड़े स्तर पर इसे चुनावों में पेड न्यूज के कलंक के रूप में सुना व देखा जाता है। इसी तरह से किसी को बदनाम करने के लिए व प्रतिस्पर्द्धा से हटाने के लिए या छवि खराब करने के लिए प्लांटेड न्यूज का सहारा लिया जाता है। समझ लीजिए भ्रामक खबरें रोपित करवा दी जाती हैं। शायद स्टिंग आपरेशन भी करवा दिए जाते हैं। यहां पत्रकार का सिपाही चरित्र कैसे बरकरार रह सकता है। केवल आदर्शों से बात नहीं चल पाती है। जानकर भी फलां अखबार चैनल की कुख्याती ब्लैकमेलर की है, वहां नौकरी चाहने वालों की लंबी कतार भी दिख सकती है। इस कटु यथार्थ को भी समझना होगा कि अभिन्न रूप से कलम की मौत से जुड़ी होती है पत्रकार की साख की मौत। शायद ऐसी स्थितियों में कलम का सिपाही बहुत वेदना झेलता है। मुझे लगता है कि भारत में पिछले कुछ महीनों में जिस तरह सुरक्षा से जुड़े सैनिक व पैरा सैनिक सोशल मीडिया में उनकी  इकाइयों में बिगड़ती चिंतनीय स्थितियों के बयान करने में मुखर हुए हैं, वैसा ही हड़कंप मानवीय संवेदना से संवेदित कलम का सिपाही भी अपने कार्य परिवेश के संबंध में उजागर कर ला सकता है। राज्यों के स्तर पर भी ये हलचलें हो सकती हैं । अंत में मै एक सामाजिक संदर्भ की बात भी रखना चाहता हूूं । हमारे देश में आम धारणा के विपरीत समाचार पत्रों की बिक्री और प्रसारण संख्या लगातार बढ़ रही है। इसका कारण बढ़ती साक्षरता भी माना जा रहा है । समाचार पत्रों के दाम भी बढ़ रहे हैं। फिर भी, किसी कारणवश, समाचार पत्रों  में ऐसी गंभीर अकादमिक रूप से अच्छे स्तर की सामग्री नहीं छप रही है, जिसे रोजमर्रा पढ़कर आप प्रतियोगी परीक्षाओं में उपयोग कर सकें। याद करें कुछ वर्ष पूर्व की ही बात, जब मां-बाप अपना पेट काटकर अतिरिक्त अखबार या पहला अखबार इसलिए लगाते थे कि घर के बच्चे- बच्ची को किसी प्रतियोगिता में बैठना होता था और अखबार उनको तैयारी में सहयोग कर रहे होते थे। आज मां- बाप अखबारों में खासकर भाषायी अखबारों में वह सब नहीं पा रहे हैं कि जिसके कारण पढ़ रह बच्चे के ज्ञानवर्द्धन के लिए वे अखबार खरीदें। कारण साफ  है समाचार पत्र समूह पत्रकारों को वातावरण लाइब्रेरी समेत वह सब उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं, जिससे वह युवा पीढ़ी को कलम व कृत्यों का धनी बना सके। जबकि समाचार पत्र रोजमर्रा की ढर्रे वाली जिंदगी में भी स्फूर्त चेतना ला सकते हैं । ब्रेकिंग न्यूज के जमाने में तो सच्चाई तक पहुंचने के लिए कलम के सिपाही और सिपाही की कलम की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है अन्यथा अब तो एक पत्रकार दूसरे पत्रकार को सुपारी पत्रकार कहने से भी गुरेज नहीं कर रहा है। जाहिर है ऐसे में लेखनी की बंदूक सुरक्षा के लिए नहीं, अन्यों को हताहत करने के लिए उपयोग में लाई जा रही है।

वीरेंद्र कुमार पैन्यूली

फ्लैट नं 26 लार्ड कृष्णा रेजिडेंसी 5/28 तेग बहादुर रोड, देहरादून

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