गौण न बनाएं प्रगति की प्राथमिकताएं

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

हर दिन मीडिया सरकार के खिलाफ कई छोटे-मोटे मुद्दों को लाइमलाइट में लाकर रख देता है, जिसका लेखकों और विश्लेषकों की मंडली में भी बड़े चाव के साथ स्वागत किया जाता है। आज देखें तो हमारी अधिकतर सार्वजनिक चर्चा केजरीवाल पर केंद्रित है, जिनकी एक अर्द्धराज्य का मुख्यमंत्री होने के नाते राष्ट्रीय परिदृश्य में एक मामूली सी भूमिका है। लेकिन अरविंद केजरीवाल छींक भी मार दें, तो उसे सनसनीखेज खबर बनाने में देर नहीं लगती। अखबार उसे पहले पन्ने की खबर बना दें या न्यूज चैनलों पर उसको अच्छा-खासा स्थान मिल जाए, तो इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए…

हाल ही के समय में हमने सुधार के नाम पर गैर जरूरी मुद्दों को उछालना शुरू कर दिया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि हम राष्ट्र रूपी जहाज को विकास की दिशा में आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं। इसी क्रम में आजादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अवार्ड वापसी सरीखे मसलों पर खूब बवाल हुआ। मोदी जो कुछ भी करते हैं, उसमें मीन-मेख निकालना कुछ पत्रकारों ने मानों अपना धर्म ही मान लिया हो और इस बीच ये विकास की सही और सकारात्मक दिशा को दिखाने में भी विफल हो जाते हैं। हर दिन मीडिया सरकार के खिलाफ कई छोटे-मोटे मुद्दों को भी लाइमलाइट में लाकर रख देता है, जिसका लेखकों और विश्लेषकों की मंडली में भी बड़े चाव के साथ स्वागत किया जाता है। आज देखें तो हमारी अधिकतर सार्वजनिक चर्चा अरविंद केजरीवाल पर केंद्रित है, जिनकी एक अर्द्धराज्य का मुख्यमंत्री होने के नाते राष्ट्रीय परिदृश्य में एक मामूली सी भूमिका है। लेकिन अरविंद केजरीवाल छींक भी मार दें, तो उसे एक सनसनीखेज खबर बनाने में देर नहीं लगती। समाचार-पत्र उसे पहले पन्ने की खबर बना दें या न्यूज चैनलों पर उसको अच्छा-खासा स्थान मिल जाए, तो इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। वह समय-समय पर व्यक्तिगत प्रचार के लिए जनता की कमाई के करोड़ों रुपए उड़ा देते हैं। उनको नजरअंदाज कर देने के बजाय उनकी छोटी-छोटी बात को लेकर बड़ी गहन चर्चा टीवी चैनलों पर आयोजित होती है। अब तो ऐसा प्रतीत होने लगा है मानो देश की जनता का दिमाग भी ऐसी बेमतलब की खबरों और लेखों से पक चुका है। यह समस्या तब और भी गंभीर रूप धारण कर लेती है, जब सर्वोच्च न्यायालय भी ऐसी छोटी-छोटी बातों में उलझने की होड़ में शामिल हो जाता है। अब कुछ राज्यों द्वारा गलियों में घूमने वाले कुत्तों की हत्या को लेकर कुछ राज्यों को नोटिस जारी करने का ही मामला ले लीजिए। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और आरजेडी के मुखिया लालू प्रसाद यादव पर चारा घोटाले में करीब 1000 करोड़ रुपए का घपला करने का आरोप है और न्यायालय में यह मामला पिछले करीब दो दशकों से कई उतार-चढ़ाव देख चुका है। इस मामले की गंभीरता व तेजी के साथ सुनवाई करके इस पर कोई अंतिम फैसला क्यों नहीं सुनाया जाता।

लेकिन हमारी न्यायपालिका गली के कुत्तों के संरक्षण या ऐसे ही दूसरे तुच्छ मामलों में व्यस्त है। इससे भी दयनीय स्थिति तब देखने को मिलती है, जब सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रीय व राज्यीय राजमार्गों के 500 मीटर के दायरे में शराब के ठेकों को हटाने और यहां नए ठेके न खोलने का आदेश जारी कर देता है। न्यायालय ने यह निर्देश जारी करने में जरा भी देरी नहीं लगाई, जबकि इससे लाखों लोगों का रोजगार छिन गया और कानूनी परमिट लेकर शराब का कारोबार करने वालों को भी भारी नुकसान झेलना पड़ेगा। एक सुबह जब मैं उठा तो देखा कि कुछ लोग शराब की दुकान से सड़क की पैमाइश करने के लिए फीते लेकर सड़क पर दौड़ रहे हैं। अब जिसकी दुकान न्यायालय द्वारा निर्धारित दायरे से एक मीटर बाहर स्थित थी, उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। दूसरी तरफ जिसकी दुकान इस दायरे के दो मीटर भी अंदर थी, उसे देखकर ऐसा लग रहा था, मानो उसका तो संसार ही उजड़ गया हो। जिन लोगों के पास लालू यादव सरीखे लोगों से कम साधन हैं, न्यायालय ने उनके प्रति इतनी बेरहमी क्यों दिखाई। यह सही है कि यहां न्यायालय ने सड़क सुरक्षा को लेकर जो संजीदगी दिखाई, उसका हर सूरत में समर्थन ही किया जाएगा, लेकिन सड़कें शराब की दुकानों के कारण ही असुरक्षित नहीं हैं। केवल दो उपायों को अपनाकर सड़क पर कई हादसों को रोककर लाखों जिंदगियां उजड़ने से बचाई जा सकती हैं। पहला जाली लाइसेंस और अप्रशिक्षित लोगों को ड्राइविंग से रोककर। दूसरा यातायात पुलिस की लुंज-पुंज व्यवस्था, जिसमें पियक्कड़ ड्राइवरों पर सख्ती से नजर नहीं रखी जाती या उन्हें निर्धारित सजा दिलाने में नाकामी। वे तमाम देश जिनका सड़क सुरक्षा संबंधी रिकार्ड बेहतर रहा है, उन्होंने अपने वहां दो मूल नियमों का पूरी सख्ती के साथ पालन किया है। एक बार मैं किसी यूरोपियन देश में एक प्रोफेसर के साथ हाई-वे पर सफर कर रहा था, जो कि देश के प्रधानमंत्री के सलाहकार भी रह चुके थे। वह निर्धारित अधिकतम सीमा से भी तेज गति से गाड़ी चला रहे थे और इतने में अचानक मोटर साइकिल पर सवार एक पुलिस कर्मी हमारी गाड़ी के आगे आकर रुक गया। उस पलिसकर्मी ने लाइसेंस समेत गाड़ी के अन्य जरूरी कागजात मांगे। प्रोफेसर ने भी अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए वे सारे कागजात उस पुलिसकर्मी को सौंप दिए।

इसके बावजूद उनकी गलती के लिए मौके पर ही उन्हें जुर्माना लगा दिया गया। बाद में मैंने पूछा कि जब पुलिसकर्मी उनका जुर्माना काट रहा था, तो उससे बचने के लिए आपने अपनी प्रधानमंत्री कार्यालय वाली अथॉरिटी का जिक्र क्यों नहीं किया। उन्होंने बड़ी विनम्रता के साथ हमें बताया, चूंकि यहां का कानून बेहद कड़ा है, लिहाजा उस संदर्भ से यहां कोई छूट नहीं मिल सकती थी। इसे कहते हैं पुलिस व्यवस्था और कानून का राज। हमारे देश में इसके उलट होता है। अगर आपको यातायात नियमों के उल्लंघन में कोई पुलिस वाला रोक भी लेता है, तो आप उसके हाथों में बख्शीश थमाकर आसानी से छूट सकते हो। पिछले महीने मैं दिल्ली में था और मेरे ड्राइवर ने मुझे बताया कि जब वह हमें अस्पताल में छोड़कर लौट रहा था, तो रास्ते में उसे पुलिस वालों ने रोक लिया था। मैंने उनसे पूछा कि यदि वह मामला दर्ज कर लेते और हमें कोर्ट जाना पड़ता, तो क्या हो जाता? उसने हल्की सी मुस्कान के साथ मुझे बताया, ‘सर, इस मर्तबा मामला आगे नहीं बढ़ा और यह 500 रुपए में ही निपट गया।’ उसने मुझे बताया कि पहले तो इससे कम में भी काम बन जाता था, लेकिन जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, यातायात पुलिसकर्मी सरेआम पैसे लेने से भी डरते हैं। अब पुलिसकर्मी ने उनसे सड़क पर पैसे नहीं लिए, बल्कि नजदीक के किसी शैड में ले जाकर पैसे लिए। इसका कारण बताते हुए उसने बताया, ‘इन दिनों कोई भी पैसे लेते हुए का वीडियो बना सकता है।’ क्या सर्वोच्च न्यायालय यह सुनिश्चित कर पाएगा कि पुलिस कानून का सख्ती से क्रियान्वयन करे? सड़क किनारे से शराब की दुकानें हटाकर हम मूल समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं कर रहे हैं, बल्कि उस पर लीपापोती करके ही उसे समाधान के रूप में पेश कर रहे हैं।

बस स्टैंड

पहला यात्री : अगर दिल्ली में ही ‘आप’ लड़खड़ा रही है, तो इसका हिमाचल में क्या होगा?

दूसरा यात्री :  कुछ नहीं। किसी ने चुटकी लेते हुए कहा कि वह ‘आप’ से अपना नाम बदलकर ‘जाप’ रख लेगी और आगे जाप ही करेगी।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com

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