रंगों का शरीर पर प्रभाव

वैद्य लोग धातुओं और पत्थरों की भस्म निर्माण करते हैं तो एक भस्म के कई रंग निर्मित करते हैं। ऐसे वैद्यों का कहना है कि भस्मों के बारह रंग बनाए जा सकते हैं। सूर्य में प्रत्यक्ष रक्तवर्ण अधिक दिखाई देता है। मानव के रक्त में भी यही रंग अधिक दृष्टिगोचर होता है। इसके अतिरिक्त सभी रंग मानव के शरीर में होते हैं। इनका शरीर में होना तांत्रिक दृष्टि से अति आवश्यक है। रंगों के कम या अधिक होने से मानव रोगी होने लगता है…

सूर्य रश्मियों में सात रंग होते हैं। सूर्य की सृष्टि में भी यह सभी रंग होते हैं। सूर्य रश्मियां संपूर्ण सृष्टि का निर्माण करती हैं, अतः संपूर्ण सृष्टि में यह सातों रंग होते हैं। पांचों तत्त्वों में यह रंग होते हैं। वनस्पतियों के रूप में पाषाणों में, रत्नों में, धातुओं में भी ये रंग विद्यमान होते हैं। जीवधारियों के शरीर में यह रंग होते हैं। वैद्य लोग धातुओं और पत्थरों की भस्म निर्माण करते हैं, तो एक भस्म के कई रंग निर्मित करते हैं। ऐसे वैद्यों का कहना है कि भस्मों के बारह रंग बनाए जा सकते हैं।

लाल रंग

सूर्य में प्रत्यक्ष रक्तवर्ण अधिक दिखाई देता है। मानव के रक्त में भी यही रंग अधिक दृष्टिगोचर होता है। इसके अतिरिक्त सभी रंग मानव के शरीर में होते हैं। इनका शरीर में होना तांत्रिक दृष्टि से अति आवश्यक है। रंगों के कम या अधिक होने से मानव रोगी होने लगता है। इन रंगों में प्रत्येक वनस्पति का, पाषाण का, जीवधारियों का जीवन वृत्तांत और उनका चिन्ह विद्यमान होता है। यही कारण है कि शीशे में, पानी में, अन्य धातुओं की चिकनी परत में चित्र दिखाई देता है। यह सब तांत्रिक परिवर्तन है, एक रंग से दूसरे रंग को परिवर्तन किया जाता है। कई रंगीन धातुओं को मिलाकर अलग धातु निर्माण होती है। रंग से ही प्रत्येक वस्तु की पहचान होती है। जैसे गेरू को उसके लाल रंग से, फिटकरी को उसकी सफेदी से पहचान लेते हैं। सुरूप और कुरूप भी रंगों के परिवर्तन से ही होता है। सूर्य में 80 प्रतिशत किरणें रक्तवर्ण होती हैं और इन्हें हमारा शरीर शत-प्रतिशत ग्रहण कर लेता है। यह रक्तवर्ण किरणें सूर्य रश्मियों से उत्तेजना उत्पन्न करने वाले परमाणु लेकर प्रविष्ट होती है। इसी से समस्त इंद्रियां सक्रिय रहती हैं। ऐसा परमाणुवाद का कथन है अर्थात सूर्य अथवा गायत्री माता का प्रसन्न होकर शक्तियों का शरीर में प्रवेश करना ही शरीर को जीवन देना है। शरीर में लाल रंग की न्यूनता से शिथिलता, कमजोरी, कुष्ठ, निद्रा, उदर आदि रोग हो जाते है, नेत्र और नाखून नीले हो जाते हैं। शौच का रंग भी नीला पीला हो जाता है अर्थात पित्त बिगड़ जाता है। सूर्य चिकित्सा कराने से पित्त का रंग सही रक्तवर्ण होकर शरीर को स्वस्थ रखता है। इस रंग में निहित परमाणु तंतु चैतन्य और रोगनाशक होते हैं। यह रंग वृद्धि, विवेक और ज्ञान उत्पन्न करने वाले परमाणु का सम्मिश्रण होता है। बौद्ध मतानुयायी इसी सिद्धांतानुसार पीत वस्त्र धारण करते हैं। विष्णु भगवान तथा अन्य देवतागण पीत परिणाम धारण करते हैं। यह रंग लकवा, मलावरोध, उदर रोग, फुफ्फुस रोग, हृदय रोग, मस्तिष्क रोग, (मिर्गी, मूर्छा, पागलपन, आत्महत्या की प्रवृति, निराशावाद, लंपटता) के रोगनाशक परमाणु शरीर में उत्पन्न करता है। इस रंग की कमी से मेदा रोग, गुल्म रोग, शूल, दर्द पसली, दर्द मसूढ़ा, योनिशूल, कृमि, हृदय स्पंदन, कोष्ठबद्धता रोग पनपते हैं। सौरमंडल में वायु का रंग पीला माना गया है, हरा भी मानते हैं, दोनों का मूलभूत रंग एक ही है, क्योंकि हरे रंग में भी पीला रंग निहित है। तंत्र शास्त्रों में इसकी भारी महिमा है। यह रंग तेज और त्वचा के लिए परम हितकर है। नेत्र विकार में इसीलिए इसकी हरे रंग की वस्त्र की पट्टी ढकते हैं, क्योंकि यह सूर्य की तेज किरणों की गर्मी को ग्रहण नहीं करती है। किरणों की प्रखरता को यह हरा रंग अपने में सोख लेता है। हर बीमारी में हरे शाक खाने का यही उद्देश्य है। बाग-बगीचे, फुलवारी लगाने का तथा प्रातः सायं उनमें टहलने का यही अभिप्राय है। हरे रंग पर दृष्टि पड़ने से नेत्र सुखी होते हैं, मन प्रसन्न होता है। पौधे जितने हरे होंगे उतनी ही वायु शुद्ध होगी। क्योंकि इस हरियाली की कार्बन-डाइआक्साइड तथा अन्य ऐसी जहरीली गैस तथा नाइट्रोजन वाली गैस खुराक है। हरी दूब, हरे पौधे को देखते रहने से उनके हरे रंग की तांत्रिकी शक्ति का मस्तिष्क में प्रवेश होता है तो मस्तिष्क शीतलता का आभास करता है। हरा रंग रक्तपित्त, रक्तप्रदर, अर्शनाशक है। ज्ञान तंतुओं को, स्नायुमंडल को बल देता है। हरा रंग, लाल रंग का विरोधी है तथा लाल रंग से शरीर में बढ़े हुआ ताप गर्मी को शांत करता है और बुद्धिबल बढ़ाता है।

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