विसंगतियों के खेल संघ

खेल संघों की मर्यादा से जूझते लक्ष्य और फिरकापरस्ती का आलम यह कि नकदी की तरह भुनाए जाते हैं ओहदे। टकराव के सिंहासन पर बैठे हिमाचल कबड्डी संघ के कारण खेल की आबरू कितनी बचेगी। कबड्डी के छोटे ग्राउंड से कहीं विस्तृत है महत्त्वाकांक्षा और यही किस्सा बयां हो रहा है हिमाचल में। एक ही संघ के दो पाटों के बीच कबड्डी को कौन सलामत रखेगा, जब भिड़ंत में ओहदेदार अचानक खिलाडि़यों से ऊपर हो गए। हिमाचल कबड्डी संघ में असली व नकली का युद्ध इस पैगाम के साथ कि  मजदूरी में खिलाड़ी पर वर्चस्व का चाबुक चलेगा। कबड्डी के फेडरेशन कप की तैयारियों में दो अलग-अलग धड़ों की टीमों के चयन में सिकंदर ढूंढना कठिन हो गया। ये हालात न खेल और न ही खेल भावना का समर्थन कर रहे हैं। जिस रास्ते पर हिमाचल में कबड्डी खड़ी है और जहां प्रो- कबड्डी ने हमारे नगीने चुने, वहां शोहरत को लूटने का यह कौन सा सलीका। घटनाक्रम दुर्भाग्यपूर्ण है और विसंगतियों के आरपार खड़े संघ के कारण खिलाड़ी का भला नहीं हो रहा। दोनों धड़ों ने दो-दो टीमें खड़ी करके यह संकेत तो दे दिया कि खेलों में भाग्य विधाता केवल संघ की सत्ता ही हो सकती है। ऐसे में यह समझना अति कठिन है कि चयन की सही पद्धति क्या है और खेल संगठनों में पलते लक्ष्यों के निरंकुश इरादे किस हद तक जा सकते हैं। हिमाचल में कबड्डी के प्रति जो उत्साह खेल छात्रावासों में जाहिर हुआ है या प्रशिक्षित कोचों ने जिस कद्र खिलाडि़यों को उत्प्रेरित किया है, उसके विपरीत संघ ने सारा गुड़ गोबर कर दिया। खिलाडि़यों के समुद्र में खेल संघों के ओहदेदार ही तैर रहे हैं, जबकि प्रतिभा के चयन में तो स्थायी भंवर मौजूद हैं। विडंबना यह है कि खेल के माहौल को विभिन्न संगठनों के बीच चल रही आंतरिक सियासत छीन रही है। आज बात खेल ढांचे की हो या खिलाड़ी की, चंद गिने-चुने संघों ने ही प्रयास किए हैं। क्रिकेट के अलावा एथलेटिक्स में प्रदर्शन की इबारत देखी जा सकती है। यह इसलिए भी कि प्रदेश के कुछ प्रशिक्षकों ने हिमाचली प्रतिभाओं को आगे बढ़ाया, तो राष्ट्रीय स्तर के परिणाम सामने आए। कबड्डी में धर्मशाला व बिलासपुर खेल छात्रावासों की बदौलत परिणाम उज्ज्वल हुए हैं। ऐसे में यह देखना जरूरी हो गया है कि वास्तव में खेलों का उदय कहां हो रहा है। सिंथेटिक ट्रैक के अलावा एस्ट्रो टर्फ बिछाने से प्रशिक्षण की बुनियाद मजबूत हुई है, जबकि इंडोर स्टेडियमों की वजह से कुछ अन्य खेलों में भी उत्थान हुआ है। निजी प्रयासों, चर्चित क्लबों व प्रशिक्षकों की वजह से फुटबाल के प्रति हिमाचली जोश की एक सुदृढ़ रिवायत विकसित हुई है। पहली बार ‘दिव्य हिमाचल’ ने फुटबाल लीग के आयोजन में अब तक यह पाया कि राज्य की खेल प्रतिभा की एक प्रभावशाली व क्षमतावान मंजिल तय हो सकती है। आठ टीमों के माध्यम से जून में हो रहे फुटबाल महाकुंभ में असली विजेता तो फुटबाल ही होगा और इस अभियान में उत्कृष्ट खिलाडि़यों के अलावा प्रशंसकों, खेल प्रश्रयदाताओं, प्रशिक्षकों, वरिष्ठ खिलाडि़यों व खेल पदाधिकारियों को भी श्रेय जाएगा। फुटबाल के अलावा अन्य खेलों में भी विशेष प्रतिस्पर्धाओं के मार्फत खिलाड़ी और खेल का भला होगा। कमोबेश हर खेल संघ कम से कम एक प्रमुख केंद्र विकसित करे, जहां माकूल अधोसंरचना और प्रशिक्षण की तमाम सहूलियतें भी मुहैया कराई जाएं। प्रदेश की आबोहवा में इतनी खूबसूरती है कि राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी यहां अपनी क्षमता का विस्तार कर सकते हैं। ऐसे कुछ प्रयोग धर्मशाला के सिंथेटिक ट्रैक पर राष्ट्रीय खिलाड़ी कर रहे हैं और अगर खेल प्राधिकरण को वांछित जमीन उपलब्ध कराई जाए तो स्थायी रूप से राष्ट्रीय स्तर का प्रशिक्षण केंद्र स्थापित हो पाएगा। हिमाचल जैसे राज्य में खेल संभावनाओं का एक अक्स विभिन्न छात्रावासों ने मजबूत किया है, लेकिन खेल में प्रतिस्पर्धा और मर्यादा तो विभिन्न संघों की मिलकीयत में दर्ज होगी। अतः जो बहस कबड्डी के अस्तित्व को लेकर पैदा हुई है, उसे खेल के परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। पदाधिकारियों के टकराव की जमीन से, न तो खेल और न ही खिलाड़ी पैदा होंगे। ईमानदारी से खिलाडि़यों के चयन व उनकी क्षमता के विस्तार को औपचारिक शिविर के बजाय स्थायी प्रश्रय चाहिए। दुर्र्भाग्यवश खेल संघों पर टिकी सियासत को यह मंजूर नहीं और जहां व्यक्ति व व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा हावी रहेगी, वहां खेलों का ही कचूमर निकलेगा। प्रदेश को अपने स्तर पर खेल ढांचा सशक्त करना होगा, जबकि टेलेंट की तलाश के लिए ग्रामीण व स्कूली खेलों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन मिलना चाहिए। एक शुरुआत हर जिला में वार्षिक ओलंपिक की तर्ज पर हो सकती है, ताकि सियासत से हटकर जमीन पर खेल व खिलाड़ी दिखाई दें।

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