क्रिकेट के क्रेज ने किनारे की हाकी

सुरेश कुमार

लेखक, दिव्य हिमाचल से संबद्ध हैं

वैसे कहने को तो हाकी हमारा राष्ट्रीय खेल है, पर सबने देखा इस राष्ट्रीय खेल की जीत पर कोई नहीं चहका। एक बार का वाकया याद आया, जब भारत की हाकी टीम ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ट्रॉफी जीती थी और देश के खेल मंत्री उन्हें 25 हजार का इनाम दे रहे थे। हाकी टीम ने इसे लेने से ही इनकार कर दिया था…

तारीख 18 जून, दिन रविवार पूरे देश में कर्फ्यू जैसा माहौल। मंजर था चैंपियंस ट्रॉफी के लिए भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच का। बाजार सूने, गलियां सूनीं यानी वैसे ही जैसे रामायण-महाभारत सीरियल के दौर में हुआ करती थीं। वैसे तो भारत में क्रिकेट का कोई भी मैच हो, लोगों का खुमार सातवें आसमान पर होता है, पर जब बात भारत-पाक क्रिकेट मैच  की हो तो यह युद्ध के जीतने-हारने सरीखी स्थिति हो जाती है। उस दिन हमारा देश पाकिस्तान से क्रिकेट का यह मैच हार गया। देश गुस्से में, सारा उत्साह उड़नछू हो गया। उधर पाकिस्तान में जश्न मनाया गया क्योंकि उनके लिए भारत को हराना तो युद्ध जीतने जैसा हो गया। दोनों ही देशों ने खेल को खेल नहीं रहने दिया, इसे जंग की जमात में खड़ा कर दिया। खेल में एक टीम को तो हारना ही है फिर चाहे वह भारत हो या पाकिस्तान। हारने पर इतनी ज्यादा हताशा क्यों और जीतने पर जश्न का जमघट क्यों। यह तो था उस दिन क्रिकेट का हाल। उसी रोज भारत ने पाकिस्तान को हाकी वर्ल्ड लीग के सेमीफाइनल मैच में 7-1 से मात दी, पर जैसा क्रिकेट में हुआ, हाकी बारे ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हाकी में भारत के जीतने का पता ही नहीं चला। न देश में कोई उत्साह, न ही कोई जश्न। न प्रिंट मीडिया और न ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे ज्यादा समय और स्थान दिया। किदांबी श्रीकांत ने उसी रोज इंडोनेशिया ओपन सुपर सीरीज बैडमिंटन टूर्नामेंट के पुरुष एकल वर्ग के फाइनल में जापान के काजूमासा साकाई को हराकर खिताब अपने नाम किया और 10 लाख अमरीकी डालर का इनाम जीता, पर देश के लिए यह कोई उपलब्धि ही नहीं। जब सारा देश क्रिकेट के पीछे ही दीवाना हुआ जाता हो, तो फिर हाकी और बैडमिंटन को कौन पूछेगा। हमने सुना है कि अंग्रेजों का इतना साम्राज्य था कि उनके राज में सूर्य कभी अस्त नहीं होता था और यह क्रिकेट उन्हीं अंग्रेजों की देन है। यानी आज भी अंग्रेज हिंदोस्तान पर हावी हैं। ऊपर जो वाकया बताया गया है इसी बात को तसदीक करता है कि हम हर खेल भूलकर सिर्फ क्रिकेट के हो गए हैं। वैसे भी यह भारत के लोगों की खासियत रही है कि वे दूसरे देशों की चीजें, चाहे वह संस्कृति हो, शिक्षा या खेल हो, उसे अपनाने को ही ज्यादा तरजीह देते हैं, अपने देश की संस्कृति, शिक्षा और खेलें उन्हें कम ही भाती हैं। वैसे कहने को तो हाकी हमारा राष्ट्रीय खेल है, पर सबने देखा इस राष्ट्रीय खेल की जीत पर कोई नहीं चहका। एक बार का वाकया याद आया, जब भारत की हाकी टीम ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ट्रॉफी जीती थी और देश के खेल मंत्री उन्हें 25 हजार का इनाम दे रहे थे। हाकी टीम ने इसे लेने से ही इनकार कर दिया था।

क्रिकेट की तो बात ही कुछ और है। क्रिकेट तो करोड़ों का खेल है। बाकी खेलों के पिछड़ने का भी तो यही कारण है कि आज खिलाड़ी भी पैसे के लिए ही खेलते हैं, देश के लिए कोई नहीं खेलता। क्रिकेट में करोड़ों हैं तो सब क्रिकेट ही खेलना चाहते हैं और हाकी में हजारों-सैकड़ों की राशि मिलेगी, तो इस राष्ट्रीय खेल को कौन पूछेगा। इसी वजह से हाकी पीछे छूट गई। कभी हाकी में भारत विश्व चैंपियन हुआ करता था और आज हाकी में किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए उसे क्वालिफाई करने में ही पसीने छूट जाते हैं। उसके बाद प्रतियोगिता में जीत हासिल करना तो बाद की बात है। हाकी का यह हाल किसने किया? हम सब ने किया, जिसमें सरकार से लेकर आम आदमी तक जिम्मेदार है, मीडिया जिम्मेदार है और वे लोग जो खेल को पैसे की तराजू में तोलते हैं। हाकी में तब भारत विश्व चैंपियन था, जब खिलाड़ी देश के लिए खेलते थे। क्रिकेट में कौन देश के लिए खेलता है, बड़े-बड़े खिलाड़ी भी मोटी कमाई करते हैं क्रिकेट में भी और विज्ञापन में भी। तभी तो कहते हैं कि पैसा और नाम कमाना है तो क्रिकेट खेलो। जीत गए तो भी पैसे, हार गए तो भी काफी पैसा मिल जाता है कि जिंदगी चल निकले। हाकी में कोई विवाद नहीं, कोई फिक्सिंग नहीं फिर भी बेचारी हाकी और क्रिकेट में तो कदम-कदम पर विवाद है। कभी फिक्सिंग का तो कभी कोच से बदसलूकी का विवाद। अभी हाल ही में विराट कोहली और अनिल कुंवले के बीच चल रहा विवाद  खेल की भावना को आहत कर रहा है। क्रिकेट में हर कोई मठाधीश बनना चाहता है। सारा कंट्रोल अपने हाथ में रखना चाहता है। इन मामलों पर तो क्रिकेट बोर्ड को अनुशासनात्मक कार्रवाई करनी चाहिए, ताकि खेल अनुशासन बना रहे। खेलों में राजनीति भी दूसरे खेलों की इस हालत के लिए जिम्मेदार है। खेलों में राजनीति के दखल ने बाकी खेलों को देश से ही बेदखल कर दिया है। तो क्या पूरा देश सिर्फ क्रिकेट ही देखना चाहता है। क्या बाकी खेलों का देश के लिए कोई मतलब नहीं है। अगर  यह सच नहीं तो दूसरे खेलों को भी उतना ही महत्त्व मिलना चाहिए। सरकार का उत्तरदायित्व है कि वह बाकी खेलों के प्रोत्साहन को भी योजनाएं बनाए। दूसरे खेलों में बेहतर करने वाले खिलाडि़यों को अच्छे पारितोषिक दे, उन्हें सरकारी नौकरियों में खेल कोटे के तहत आरक्षण दे। भारत विभिन्नताओं का देश है। गांव के गिल्ली-डंडे से क्रिकेट तक सब खेलों को देश में समान सम्मान मिलना चाहिए, स्थान मिलना चाहिए।

ई-मेल : sureshakrosh@gmail.com

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