तंबू के खूंटे का पर्यटन

पहाड़ से बढ़ती पर्यटक की दोस्ती और युवा वर्ग के रोमांच की फैलती निगाहों ने हिमाचल में अनुभव की नई तलाश शुरू की है। ट्रैकिंग, रिवर राफ्टिंग व पैराग्लाइडिंग से जुड़े रोमांच ने युवा पर्यटकों की डेस्टीनेशन बदल दी, लेकिन इस दौरान भीड़ का सैलाब ईको टूरिज्म की वजह व जिरह से छेड़छाड़ कर रहा है। पर्वत की भुजाओं पर तने तंबू इस बात का सबूत हैं कि पर्यटन के चिन्ह बदल रहे हैं, लेकिन इस यथार्थ को भी समझना होगा कि भीड़ के डेस्टीनेशन में ईको टूरिज्म का निवास नहीं होगा। ईको टूरिज्म वास्तव में पर्यावरण चेतना व संरक्षण का ही नायाब तरीका है और अगर इसकी छाती पर तंबुओं के अनगिनत खूंटे गाड़े जाएंगे तो पर्वत की आत्मा रोएगी। विडंबना यह है कि इस साल सप्ताहांत पर्यटन के कदम पहाड़ पर चढ़ते हुए टै्रकिंग को डेस्टीनेशन में बदल कर, कई स्थानों का हुलिया बिगाड़ रहे हैं। त्रियूंड जैसे ट्रैकिंग स्थल पर अगर सप्ताहांत पर्यटन की भीड़ में दो हजार लोगों की शुमारी होगी, तो हम ईको टूरिज्म के सिद्धांत की सौदेबाजी ही कर रहे हैं। बेशक त्रियूंड इस समय ट्रैकिंग टूरिज्म के शिखर पर अपने शिखर को सौंप रहा है, लेकिन इस हलचल की भी एक सीमा और परिपाटी है। यह कौन तय करेगा कि ट्रैकिंग स्थलों की क्षमता के अनुरूप पर्यटन को अनुमति दी जाए। त्रियूंड जैसे स्थल पर पांच सौ से ऊपर सैलानियों का जमावड़ा घातक ही साबित होगा। पर्यावरणीय दृष्टि के अलावा पर्यटक सुविधाओं का मूल्यांकन नहीं होगा, तो हम ईको पर्यटन को मात्र भीड़ बना रहे हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रोहतांग भी भीड़ के पांवों तले कुचला गया और अब नौबत यह है कि इसकी नब्ज पर एनजीटी का पहरा लगाना पड़ रहा है। ऐसे में ईको पर्यटन नीति की संगत में दिशा-निर्देश पुष्ट करने पड़ेेंगे तथा निगरानी तंत्र को भी सशक्त करना होगा। सामुदायिक आधार पर ईको पर्यटन का चेहरा केवल व्यावसायिक गतिविधि नहीं बन सकता, लेकिन ट्रैकिंग मार्गों पर हो रही दुकानदारी तथा तंबुओं का प्रबंधन इसी उद्देश्य को पुष्ट कर रहा है। बेशक सरकार चाहे तो व्यापारिक गतिविधियों की सीमित आवश्यकता को ठोस अधोसंरचना व व्यवस्था के तहत परिमार्जित कर सकती है, लेकिन इसका वास्तविक उद्देश्य पर्यटक की सुविधा और संतुष्टि से जुड़ता है। ट्रैकिंग केवल निजी ख्वाहिश का मंजर नहीं, बल्कि एक नियंत्रित पर्यटन की पैमाइश सरीखी है और इसके साथ सैलानी तथा राज्य की जवाबदेही सुनिश्चित है। आश्चर्य यह है कि ट्रैकिंग रूट की इंटरनेट जानकारियों ने ईको टूरिज्म का आधार तो फैला दिया, लेकिन जब शिकारी देवी के रास्ते पर दो युवा जान गंवा बैठते हैं तो सारा किस्सा अभिशप्त हो जाता है। ऐसे में ट्रैकिंग डेस्टीनेशन की तरफ प्रस्थान करने का समय और सीजन निर्धारित पंजीकरण के तहत होना चाहिए। इतना ही नहीं, हिमाचल को अपने ट्रैकिंग स्थलों व अन्य साहसिक पर्यटन के डेस्टीनेशन या ऐसी क्रीड़ाओं को अधोसंरचना तथा यात्री सुविधाओं से परिपूर्ण करना होगा। ट्रैकिंग के चिन्हित क्षेत्रों की मर्यादा इसी में है कि इन्हें निगरानी में रखा जाए। यह पर्यटन के उन्मादी तेवरों से भिन्न शांति और प्रकृति के प्रति समर्पण का आदर्श चेहरा होना चाहिए, अतः इस दिशा में फैलते ईको टूरिज्म की बुनियादी शर्तें अमल में लानी होंगी। हर ट्रैकिंग रूट पर पंजीकरण, सूचना, तफतीश व निगरानी का बंदोबस्त करना पड़ेगा। आवश्यक जानकारियों व चौकसी के अभाव में ट्रैकिंग के मूल सिद्धांत परास्त हो सकते हैं। जिस तंबू अनुभव को युवा मनोरंजन समझ रहे हैं, उसके खतरे से सरकार गाफिल नहीं हो सकती। बिना छत, स्थायी व टिकाऊ अधोसंरचना के बिगड़ते मौसम और मानवीय मिजाज पर यह दौर अनुकूल कैसे ठहराया जाए।  पांच सौ से हजार पर्यटकों के तंबू शिविर को हम आर्थिक या सैलानी शुमारी में देखकर खुश हो सकते हैं, लेकिन पहाड़ पर पानी, मेडिकल, सुरक्षा व शौचालय इत्यादि सुविधाओं से महरूम वातावरण में व्यवस्थागत आशंकाओं का निवारण अनिवार्य है। कम से कम त्रियूंड जैसे सबसे अधिक ट्रैकर्ज को आकर्षित करते स्थल पर सामूहिक शेल्टर तथा शौचालय जैसी व्यवस्था के साथ-साथ बिजली-पानी और निगरानी का प्रबंध तो करना ही पड़ेगा। कम से कम प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान की अवहेलना पहाड़ नहीं कर सकता।

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