राजनीतिक पत्थरबाजी

किसी आईटीआई भवन का उद्घाटन समारोह कितना महत्त्वपूर्ण हो सकता है, इसकी एक झलक कांगड़ा विधानसभा के दौलतपुर में देखने को मिली। हम अनेकार्थी सियासत को समझने की कोशिश भले ही करें, लेकिन इसके प्रतीक बदलते हैं और इसी तरह चेहरे भी। मंत्री जीएस बाली द्वारा आईटीआई का उद्घाटन जिस शिद्दत से होना था, उससे एक दिन पहले कांगड़ा के विधायक पवन काजल ने फीता काटकर जो सियासी फबती कसी, उसे रेखांकित करके सहेजना होगा, ताकि पता चले कि असल में दौलत है क्या। हम इसे किसी भी परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करें, लेकिन यह राजनीति का कठिन यथार्थ है, जो इस प्रकार की महत्त्वाकांक्षा को ही चित्रित करता है। यानी विधानसभा का मालिकाना हक बड़ा या मंत्री का ओहदा। मंत्री का मजमून जहां चस्पां होना था, वहां विधायक का जुनून लिखा गया, तो यह भी स्पष्ट है कि इमारतों में केवल दीवारें ही संघर्षरत हैं, जबकि छत तो अब किसी काबिल नहीं। बावजूद इसके कि एक आईटीआई बढ़ गई और बच्चों को घर के करीब शिक्षा मुहैया हो गई, जहां राजनीतिक उपलब्धता और उपलब्धि के बीच अधिकारों की जंग स्पष्ट है। यह दीगर है कि विधायक की जवाबदेही, ऐसी ही दीवारों के मुख्य भाग में टंगी पट्टिका देती है या जनता की ख्वाहिशों के बीच नमक हलाल करने की अब यही राजनीति बची है। वैसे अगर उद्घाटन नहीं होता तो भी सत्ता के खिलाफ पांच सालों का रिपोर्ट कार्ड तो बराबर ही रहता, फिर भी पत्थरों  के बीच नेताओं के हिस्से के पत्थर उछलते हैं तो जमाना समझता है। आईटीआई का प्रवेश द्वार वाकई राजनीति ने खोला या वहां कोई विभागीय  शिरकत भी रही। इस सत्य की जरूरत अब जनता को भी नहीं और न ही वे जोशीले तर्क व नैतिकता बची, जो हर कार्यालय या संस्थान की स्थापना से पहले औचित्य पूछते थे। काजल का साथ देने के लिए हुजूम था और शाबाशियां भी, लेकिन इमारत खुद भविष्य की कल्पना में इसे शायद ही अंगीकार कर पाई होगी। दूसरी ओर विभागीय मंत्री ने चार करोड़ के भवन का अगले दिन औपचारिक उद्घाटन कर अपने दायित्व का शिलालेख लिख दिया। ऐसे में छात्र समुदाय से अगर पूछा जाए कि दोनों समारोहों की रौनक में उन्हें क्या मिला, तो शायद ही भविष्य के आदर्शों का वे अर्थ ढूंढ पाएंगे। हिमाचल के जो युवा विभिन्न क्षेत्रों  में आगे बढ़ रहे हैं, उनके लिए ऐसे उद्घाटनों के क्या मायने, जबकि शैक्षणिक संस्थान की प्रतिष्ठा व फैकल्टी की दक्षता हमेशा याद रहती है। विडंबना भी यही है कि न तो शिक्षा के संस्थान प्रतिष्ठित हो रहे हैं और न ही फैकल्टी। प्रदेश में करीब डेढ़ सौ कालेजों के जखीरे में उत्तम संस्थान खोजना अति कठिन है। आश्चर्य यह कि छात्र महत्त्वाकांक्षा के ऊपर राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा सवार हो रही है, जबकि यह युवा भविष्य के खिलाफ है। बेहतर भविष्य की खोज में छात्र समुदाय भटक रहा है, जबकि शिक्षा संस्थानों में राजनीति शरण ले रही है। किसी भी विधानसभा क्षेत्र में अनेक शैक्षणिक संस्थान खुल रहे हैं, लेकिन क्या कभी बच्चों से पूछा कि वे कितने संतुष्ट हैं। जो हिमाचली बच्चे आईआईटी, एम्स, पीजीआई, एनडीए या विभिन्न प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में सफल होकर नाम कमा रहे हैं, उनसे पूछ कर देखें कि किस राजनीतिक हस्ती द्वारा किए गए शिलान्यास या उद्घाटन से उनका मार्ग प्रशस्त हुआ। बेरोजगारी के तमगों को हटा कर पढ़ें कि राजनीतिक सोच ने युवाओं का दामन किस संकट से भर दिया है। इस तरह के उद्घाटनों का दर्द शिक्षा की बुनियाद से पूछा जाना चाहिए या उस छात्र से जिसे दाखिले के बाद भी अपने भविष्य का कोई चितेरा नहीं मिलता। इमारतों के मोह में राजनीति की यह दौड़ घातक है, क्योंकि बिना संभावना, क्षमता और तर्कों से कोई संस्थान नहीं बनता। दौलतपुर आईटीआई की तस्वीर शायद ही विधायक  या मंत्री के उद्घाटन से बुलंद होगी, लेकिन अगर माकूल अध्यापक, उपयुक्त व्यवस्था तथा माहौल मिले तो छात्र समुदाय का भविष्य यकीनन मुकाम पर पहुंचेगा। प्रश्न यह भी उठना स्वाभाविक है कि शिलान्यास से उद्घाटन तक के समारोहों के सफर में देश-प्रदेश पाते क्या हैं। ऐसे समारोहों की अंततः आवश्यकता है क्या और ये विशेषाधिकार के रूप में नेताओं की जमात का रुतबा बढ़ा क्यों रहे हैं। किसी सुंदर इमारत की तारीफ ही करनी है, तो इंजीनियर से मेट-मिस्त्री की होनी चाहिए या संस्थान की प्रतिष्ठा के लिए शिक्षक का सम्मान अपरिहार्य क्यों नहीं।

भारत मैट्रीमोनी पर अपना सही संगी चुनें – निःशुल्क रजिस्टर करें !