शब्द वृत्ति

पर्यावरण का पंच

सांस चल रही है मुश्किल से,

वायु प्रदूषित भारी,

प्रकृति सिसकती है कोने में,

बड़ी हुई लाचारी।

बेटों ने ही काटा, पीटा,

संक्रामक बीमारी,

पसर रहा विज्ञान,

विष भरा दूध, आम, तरकारी।

जीत गए कचरे के पर्वत,

साफ-सफाई हारी।

दम घुटता है इस धरा का,

चली वृक्ष पर आरी,

प्रकृति हो गई छलनी,

भौतिक सुख सुविधांए भारी।

खनन माफिया मस्त हो रहा,

गंगा कीचड़ सारी, भू-माता गुस्से से बोली, अब है मेरी बारी।

डा. सत्येंद्र शर्मा, चिंबलहार पालमपुर

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