हम कितने भारतीय हैं

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

भारतीयता के मर्म पर भी ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। यह मर्म हिंदुत्व के धर्म,अर्थ,काम, मोक्ष जैसे मूल्यों में समाहित है। इसका गाय के प्रति दिखाई जाने वाली सनक अथवा वैलेंटाइन डे के विरोध से ज्यादा लेना-देना नहीं है। अपने जीवन और समाज का भविष्य आधुनिकता तथा प्राचीन मूल्यों के बीच समन्वय और संश्लेषण में निहित है। प्राचीनता से चिपके रहने से कुछ खास हासिल नहीं होने वाला है। जब मैंने दिल्ली में एक आधुनिक प्रबंधन संस्थान की स्थापना की तो उसमें संश्लेषण के महत्व को स्थान दिया गया। मैंने एक नारा दिया-‘हम अधिक भारतीय हैं, फिर भी हम अधिक अंतरराष्ट्रीय हैं’…

जब कुछ कश्मीरी पृथक्कतावादी पाकिस्तान के प्रति खुला समर्थन प्रदर्शित करते हैं और भारत से खैरात भी प्राप्त करते हैं, तो मुझे और मेरे जैसे बहुत सारे भारतीयों को बहुत दुख होता है। इसी तरह, जब भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होने वाला होता है तो देशभक्ति का प्रश्न अथवा अपने देश का पक्ष लेने की चर्चा हर गली-नुक्कड़ में होने लगती है। इस मामले से जुड़ा हुआ एक ज्वलंत प्रश्न यह भी है कि खुद को सच्चा भारतीय कैसे दिखाया जाए। कई बार यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि हमें स्वयं को विश्व नागरिक के तौर पर लेना चाहिए और संकीर्ण अर्थों में भारतीय बनने का कोई खास तुक नहीं है। देश के प्रति प्रेम करने को भारतीयों में कोई शक-शुबहा नहीं है। कुछ हालिया प्रकरणों से इस तथ्य और भावना को आसानी से समझा जा सकता है। पहली और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना मोदीवाद का उभार है। मोदी ने देश के प्रति अपनी उच्चकोटि की प्रतिबद्धता दिखाकर तथा दूसरों के लिए समानता और न्याय के मूल्यों को सुनिश्चित कर देश के सोचने और महसूस करने के तरीके में व्यापक बदलाव पैदा किया है। अपने लगभग सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों में बार-बार ‘भारत माता की जय’ बोलकर उन्होंने राष्ट्रवाद का मार्ग प्रशस्त किया है और मातृभूमि के प्रति पे्रम को अभिव्यक्त किया है।

 कुछ तथाकथित पंथनिरपेक्ष लोग राष्ट्रभक्ति की अभिव्यक्ति से इस कद्र भयभीत होते हैं ‘वंदेमातरम’ का गायन भी उनके लिए विमर्श करने और प्रलाप करने का विषय बन जाता है। जबकि स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान हिंदू और मुस्लिम, दोनों इसका खुलकर उपयोग करते थे। मुस्लिम कट्टरपंथियों की तरह हिंदू उन्मादियों ने भी देश में विलगाव की भावना को बढ़ावा दिया है। संदेह की रेखाएं सदैव से रही हैं क्योंकि देश के प्रति प्रेम की उत्कृष्ट भावना को प्रदर्शित करने वाले मुसलमानों की संख्या सीमित ही रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुस्लिमों का एक हिस्सा खुद को हिंदुओं से कम भारतीय नहीं मानता और वे सच्चे अर्थों में भारत माता के सपूत हैं। बनारस के घाटों पर शहनाई बजाने वाले बिस्मिल्ला खान हों या अब्दुल कलाम आजाद हों अथवा पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, उनकी भारतीयता पर कौन सवाल उठा सकता है। लेकिन मुस्लिमों में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है, जो असहाय होने के कारण पाकिस्तान नहीं जा सके। इसीलिए जब वोट बैंक की राजनीति को ध्यान में रखते हुए अल्पसंख्यकों के साथ विशेष बर्ताव किया जाता है तो हिंदुओं के हिमायती लोग उसे चुनौती देने के लिए आगे आते हैं। भारतीय जनता पार्टी के उभार के कारण उनमें अतिरिक्त साहस का संचार हुआ है। अब स्थितियां बदल गई हैं। हर कोई पिछले पांच दशकों से पसरे असंतुलन से तंग आ चुका है और समान व्यवहार की इच्छा रखता है। अब यह बात भी पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है कि अल्पसंख्यक मत हर स्थिति में निर्णायक साबित नहीं होते। उत्तर प्रदेश इसका ताजा उदारहण है। यहां पर भाजपा ने सभी जातियों को उचित प्रतिनिधित्व देकर अल्पसंख्यक मतों के निर्णायक होने के भ्रम को तोड़ दिया है।

उत्तर प्रदेश में हुए चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी को चुनावी मैदान में नहीं उतारा था। पार्टी के इस कदम की अन्य विपक्षी पार्टियों ने बहुत आलोचना की थी लेकिन जब चुनाव परिणाम आए तो पार्टी ने तीन-चौथाई सीटें जीतकर सभी को हैरत में डाल दिया। इन चुनावों ने इस बात को अधिक मजबूती के साथ स्थापित कर दिया कि सभी जातियों को उचित प्रतिनिधित्व देकर अल्पसंख्यक मतों के प्रभाव को अप्रासंगिक बनाया जा सकता है। इससे पहले तक भारत में किसी एक जाति और मुस्लिम समुदाय के गठजोड़ को चुनावी जीत का मंत्र माना जाता रहा है। भाजपा ने इस चुनावी गणित को पलट कर रख दिया है। इसी कारण पंथनिरपेक्षता को लेकर चलने वाली बहस में भी बहुत बदलाव आ गया है। विकृत पंथनिरपेक्षता को लेकर भारतीयों में चिढ़ पैदा हो गई थी और भाजपा उस चिढ़ को पकड़ने में सफल रही। अब यह बात भी पूरी तरह से स्पष्ट हो चुकी है कि भारत में पंथनिरपेक्षता, बहुसंख्यक समुदाय की स्वीकृति के कारण बनी हुई है। पंथनिरपेक्षता भारत के प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी है। इसका उपयोग एक समुदाय के कर्त्तव्य और दूसरे समुदाय के अधिकार के रूप में करना न केवल इसकी मूल भावना के विपरीत है बल्कि देश की अखंडता के लिए भी घातक है। जम्मू-कश्मीर के संदर्भों में देखें तो अनुच्छेद 370 के कारण इस राज्य को विशेष संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ है। कश्मीरियों के दोनों हाथों में लड्डू हैं।

उन्हें भारत से वित्तीय मदद प्राप्त होती है और वे शिक्षा, स्वास्थ्य तथा व्यापार संबंधी सुविधाओं का भरपूर लाभ उठाते हैं लेकिन भारतीयों को वहां संपत्ति खरीदने अथवा व्यापार करने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। इतनी सारी सहूलियत मिलने के बाद वे पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाते हैं और भारतीयों को कश्मीर में समान अधिकार प्रदान करने का विरोध करते हैं। सबसे बुरी बात यह है कि एनआईए ने अपनी जांच में इस बात के पुख्ता सबूत इकट्ठा किए हैं कि पृथक्कतावादियों को पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर वित्तीय मदद मिलती है। पाकिस्तान उन्हें यह मदद आतंकी गतिविधियों को बढ़ाने तथा विरोध प्रदर्शन करने के लिए देता है। हम उनसे किस तरह की भारतीयता की अपेक्षा करते हैं। इस कारण भारतीयता को खतरा केवल बाहरी शत्रुओं से नहीं है बल्कि देश के भीतर से भी है। भारतीयता के मर्म पर भी ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। यह मर्म हिंदुत्व के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जैसे मूल्यों में समाहित है। इसका गाय के प्रति दिखाई जाने वाली सनक अथवा वैलेंटाइन डे के विरोध से ज्यादा लेना-देना नहीं है। अपने जीवन और समाज का भविष्य आधुनिकता तथा प्राचीन मूल्यों के बीच समन्वय और संश्लेषण में निहित है। प्राचीनता से चिपके रहने से कुछ खास हासिल नहीं होने वाला है। जब मैंने दिल्ली में एक आधुनिक प्रबंधन संस्थान की स्थापना की, तो उसमें संश्लेषण के महत्त्व को स्थान दिया गया। मैंने एक नारा दिया-‘हम अधिक भारतीय हैं, फिर भी हम अधिक अंतरराष्ट्रीय हैं।’

बस स्टैंड

पहला यात्रीः शिमला में कम्युनिस्ट इतनी बुरी तरह क्यों पराजित हुए?

दूसरा यात्री : उन्होंने अपनी असफलताओं से आंखें फेर ली थीं, इसीलिए उस पर नियंत्रण भी नहीं कर सके।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com

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