हिमाचली तोहफों का पैकेज

अचानक हिमाचल अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में आया, तो तोहफों के इस पैकेज के अन्वेषण, जिज्ञासा और चर्चा में कुछ अतिरिक्त भी रेखांकित होगा। यह दीगर है कि अमरीकी व्हाइट हाउस की चाय-प्याली में हम कांगड़ा का रंग, मैडम ट्रंप की कलाई में मंडी का ब्रेसलेट, कुल्लू की शॉल और मिठास घोलता हिमाचली शहद देख सकते हैं। जाहिर है हिमाचल के उत्पाद यूं ही भारतीय ग्लैमर की प्राथमिकता में नहीं आए और इसी अभियान की कोशिकाओं में निश्चित तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का प्रवाह और असर स्पष्ट है। बेशक इससे पूर्व भी कई हिमाचली उत्पाद देश का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं, लेकिन तोहफों की पैकेजिंग व ब्रांडिंग इस तरह कभी नहीं हुई। हिमाचली तोहफों की सूची और लंबी हो सकती है और इस बहाने यह प्रदेश अपनी सांस्कृतिक मौलिकता में अपने अस्तित्व का इजहार कर सकता है। ट्रंप दरबार और ट्रंप परिवार के पास पहुंचा हिमाचली संसार यह प्रश्न भी पूछ रहा है कि हम हिमाचली इनके संरक्षण व प्रसार में क्या कर रहे हैं। चर्चा के कई बिंदु शॉल बुनकरों, चाय बागान मालिकों, तुड़ान मजदूरों, परंपरागत आभूषण निर्माताओं और शहद उत्पादकों के भविष्य से जुड़े हैं और इन्हें भी कायदे से समझना होगा। हिमाचली तोहफों के गुलदस्ते से निकलती महक व्हाइट हाउस की चकाचौंध में तभी बरकरार रहेगी, अगर प्रदेश में इनके संरक्षण की कवायद मजबूती से हो। हिमाचली शहद के कटोरे को चूस कर कई कारपोरेट ब्रांड मोटे हो गए, लेकिन शहद की मक्खियों ने उत्पादकों के वजूद को काटना शुरू कर दिया है। इसी तरह कांगड़ा चाय की गिरती पैदावार और अनधिकृत रूप से बिकते चाय बागानों ने संभावनाओं को तोड़ मरोड़ दिया है। हिमाचल के मुजारा कानून से बची चाय की झाडि़यों को केंद्र की उदारता का एहसास चाहिए। हो सकता है ट्रंप को कांगड़ा चाय पसंद आ जाए और इस टी पार्टी से मोदी भ्रमण का मिजाज सुखद हो जाए, लेकिन असली रंग तो उस धरती पर आएगा जो सौ साल से अधिक समय से इसे पाल रही है। अगर मोदी ने दार्जिलिंग या केरल की चाय के बजाय कांगड़ी केतली चूल्हे पर चढ़ाई है, तो समय की नजाकत में फिर एक चायवाला अपनी सियासी हस्ती से हिमाचल का रिश्ता पुख्ता कर रहा है। इस पहल के स्वागत व मोहजाल में हर हिमाचली प्रसन्न होगा, लेकिन रिश्ते के स्थायित्व पर उखड़ रही कांगड़ा चाय पर केंद्रीय मंत्रालयों को मंथन करना होगा। हिमाचल की वनाच्छादित जमीन का कुछ हिस्सा अगर चाय, कॉफी व औषधीय जड़ी-बूटियों की खेती को मिल जाए, तो चाय के साथ कॉफी में भी उबाल आएगा। इसी के साथ शहद उत्पादन का भी एक प्राकृतिक रिश्ता है और यह जंगल में मंगल कर सकता है। वन नीति का आधार ऐसे पौधों और वनस्पति का संरक्षण कर सकता है, जिसके प्रारूप में शहद की मक्खियां औषधीय घरानों की तरह विश्व को अमृत चटा सकती हैं। हिमाचल के परंपरागत आभूषणों के अलावा विविध पहरावों, ऊनी व रेशमी उत्पादों, काष्ठ तथा मूर्ति कलाओं का एक वृहद पहलू संरक्षण की उम्मीद करता है। जिस तरह अंतरराष्ट्रीय शो केस में हिमाचली तोहफे सजे हैं, उससे राज्य की आशाएं सहज रूप से केंद्र की ओर मुखातिब हैं। हिमाचली तोहफों की परख में एक जौहरी के मानिंद प्रधानमंत्री ने प्रदेश का कलामंच तैयार किया है और इसलिए इस इबारत में कई केंद्रीय मंत्रालयों की झलक पुख्ता हो सकती है। संरक्षण की दरकार में कमोबेश संस्कृति का प्रत्येक पक्ष, केंद्र से यह दरख्वास्त करता है कि ऐसे अनेक उत्पादों को पहाड़ की अस्मिता के साथ मजबूत किया जाए। मोदी सरकार के तीन सालों की परिपाटी में चमक रहे हिमाचली तोहफों की हैसियत कितनी आंकी जाएगी, लेकिन चुनावी सन्निकटता में यह राज्य अवश्य ही केंद्रीय सोच के आईने में झलक रहा है। हिमाचली संवेदना के रक्षक के रूप में प्रधानमंत्री का परिचय वहीं दिखाई दे रहा है, जहां कभी अटल बिहारी वाजपेयी का रिश्ता कुल्लू घाटी की प्रीणी से जुड़ा और लाहुल-स्पीति को सुरंग के दूसरे छोर तक देखने का अवसर मिला। इसी परिप्रेक्ष्य में लेह-मनाली रेल परियोजना के अंतिम चरण का सर्वेक्षण अब शिलालेखों के रूप में सामने आ रहा है, तो तोहफों के आदान-प्रदान में हिमाचल को समझने और समझाने का राजनीतिक दौर भी तो यही है। हिमाचली तोहफों का पैकेज और पैकेज में तोहफे लेकर अगर देश का प्रधानमंत्री कुछ कह रहा है, तो सारा हिमाचल सुनेगा और शहद की तरह मीठा रहेगा, क्योंकि पर्वत का भोलापन भी यही साबित करता है।

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