कैसा छंद

कैसा छंद बना देती हैं

बरसातें बौछारों वाली,

निगल-निगल जाती हैं

बैरिन

नभ की छवियां तारों वाली!

गोल-गोल रचती जाती हैं

बिंदु-बिंदु के वृत्त बना कर,

हरी हरी-सी कर देता है

भूमि, श्याम को घना-घना कर।

मैं उसको पृथ्वी से देखूं

वह मुझको देखे अंबर से,

खंभे बना-बना डाले हैं

खड़े हुए हैं आठ पहर से।

सूरज अनदेखा लगता है

छवियां नव नभ में लग आतीं,

कितना स्वाद ढकेल रही हैं

ये बरसातें आतीं जातीं?

इनमें श्याम सलोना ढूंढो

छुपा लिया है अपने उर में,

गरज, घुमड़, बरसन, बिजली-सी

फल उठी सारे अंबर में!

-माखनलाल चतुर्वेदी

भारत मैट्रीमोनी पर अपना सही संगी चुनें – निःशुल्क रजिस्टर करें !