जंगल से सामुदायिक विकास

हमारे इर्द-गिर्द चक्कर लगाता वार्षिक वन महोत्सव हाजिर है और इसकी फरमाइश में सारा तंत्र नाचेगा, लेकिन योगदान की भूमिका ने आज तक परिभाषित क्या किया। दरअसल पौधारोपण और वनीकरण के बीच केवल एक विभाग संतुष्ट रहता है, जबकि परिवेश की मजबूती में इसे त्योहार की तरह देखना होगा। हिमाचली परिप्रेक्ष्य में हर पौधारोपण मात्र वन विभाग की औपचारिकता है, जबकि प्रदेश के लिहाज से जंगल की मिलकीयत परिभाषित ही नहीं होती। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर समाज की थाली में पैदा हुए छेद अगर नहीं देखेंगे, तो जंगल का संतुलन होगा क्या। कहीं न कहीं वन संरक्षण अधिनियम अनेक तरह का अतिक्रमण कर चुका है और इसे समझे बिना वन महोत्सव की डगर पर हमें जाना किधर है, यह भी तय नहीं। पिछले सालों में हुए पौधारोपण  को समझें, तो इस महोत्सव का कसूरवार किरदार सामने आएगा। आज जहां और जहां तक जंगल है, उस पर इनसानी जरूरतों का ताला है, तो सवाल यह है कि पौधारोपण के नाम पर हम केवल सरकारी आयोजनों के टमक बजाते हैं। अगर वन महोत्सव वास्तव में पौधारोपण है, तो बागबानों ने जो पेड़ उगाए वे क्या हैं। ऐसे में बागबानी के अर्थ में जंगल को समझा जाए, तो हिमाचल का क्षेत्रफल फल राज्य बनकर भी पर्यावरण की ही रक्षा कर रहा है। दूसरी ओर वन्य प्राणी जिस तरह हिमाचली बस्तियों में अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं, तो इस दस्तूर में जंगल की सीमा कहां खत्म होगी। दरअसल जंगल की जिम्मेदारी आज तक तय नहीं हुई, इसलिए हिमाचल जैसे राज्यों में भविष्य के खतरे पैदा हो रहे हैं। अगर बंदर खेत को उजाड़ चुका है या नील गाय-सूअर इत्यादि किसान की फसल उगने नहीं देते, तो गांव की जमीन पर इसे जंगल का प्रकोप क्यों न मानें। हिमाचली जंगल असल में इनसान को दे क्या रहा है और जब आग में लिपटता है तो किस पर्यावरण की रक्षा कर रहा होता है। बेशक पर्यावरण के सही मायनों में मानव को हरियाली के साथ जीने का अधिकार मिलता है और इस दिशा में हर पौधा जीवन की गारंटी को तसदीक करता है, लेकिन चीड़ के जंगल ने जो खतरे बढ़ाए उन्हें समेटने की जरूरत है। हिमाचल से कहीं बेहतर तरीके से उत्तराखंड ने चीड़ के कुप्रभाव से निजात की डगर चुनी और वहां सबसे बड़ा न्यायिक युद्ध इन पौधों को जंगल से हटाने के लिए शुरू हो चुका है। होना भी यही चाहिए कि जंगल का विकास, सामुदायिक विकास बने। इसलिए हिमाचल में सौ साल से भी पहले बनी सड़कों के किनारे आज भी फलदार पौधों में हम सामाजिक भागीदारी देख सकते हैं। एक प्रयास तत्कालीन वन मंत्री जगत प्रकाश नड्डा ने औषधीय पौधे बांट कर किया था, लेकिन इससे पहले जंगल में समुदाय के भविष्य का संरक्षण निर्धारित करना होगा। स्की विलेज में भले ही व्यापारिक उद्देश्यों में देव समाज तक उलझ गया, लेकिन ऐसी परियोजनाओं के जरिए वन की भुजाओं में रोजगार की उत्पत्ति संभव है। जिस तरह बंदर जंगल के बाहर आ रहा है, उसके प्रत्युत्तर  में वन बस्तियां या पर्यावरण मॉडल पर आधारित भविष्य के शहर के चिन्ह जंगल के साथ जोड़ने पड़ेंगे। चीन ने तो बाकायदा ली यू जो नामक फोरेस्ट सिटी परियोजना के तहत तीन हजार परिवारों के लिए ठिकाना बनाना शुरू किया है। फोरेस्ट सिटी में सौ से अधिक प्रजातियों के दस लाख पौधे उगेंगे, जबकि चालीस हजार पेड़ कार्बन डाइआक्साइड तथा प्रदूषण को समाप्त करते हुए नौ सौ टन आक्सीजन की आपूर्ति करेंगे। जाहिर तौर पर इस अवधारणा में अगर हिमाचल में चार नए शहर बसते हैं, तो आने वाली सदियों की छांव, वन क्षेत्र को पूरी तरह परिभाषित करेगी। पालमपुर-धर्मशाला, हमीरपुर-मंडी, नाहन-सोलन व ऊना-हमीरपुर के बीच हमें जंगल के बजाय, फोरेस्ट सिटी के विकास को समझना होगा, ताकि पौधारोपण जीवन की शक्ति-समृद्धि के अलावा स्वच्छ वातावरण का सशक्त प्रहरी बने। वन संरक्षण अधिनियम को सामुदायिक रिश्तों के तराजू में तौलें तो राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन क्रेडिट, फोरेस्ट सिटी, सामूहिक व सहकारी खेती तथा नदी-नालों के तटीकरण की राष्ट्रीय नीतियों को अमल में लाने की अनिवार्यता समझी जाएगी। हिमाचल के जंगलों में चीड़ के बजाय जड़ी-बूटियों, चाय, कॉफी व फूलों की खेती को जगह मिले तो समृद्धि आएगी। इसी तरह ईको पार्क के प्रारूप में जैविक अनुसंधान को प्राथमिकता मिले तो राष्ट्रीय सेहत व सप्लाई के लिए जंगल की मिट्टी काम आएगी। भारत व राज्यों के वन मंत्रालयों को वन के उद्देश्य व वन की सामुदायिक जिम्मेदारी को नए सिरे से स्पष्ट करना होगा। जंगल में वन महोत्सव मनाने के बजाय उन नदियों का तटीकरण आवश्यक है, जो भविष्य की जमीन व जड़ों को खोद रही हैं। हिमाचल के समस्त नदी-नालों और विशेषकर स्वां जैसी तटीकरण परियोजनाओं के साथ वन महोत्सव मनाएं तो वास्तव में भविष्य का पौधारोपण होगा और नए जंगल मानव बस्ती के करीब आएंगे।

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