कर्म सिंह ठाकुर
लेखक, सुंदरनगर, मंडी से हैं
हिमाचली संस्कृति व सभ्यता विश्वविख्यात हैं। प्राचीन ग्रंथों में प्रदेश की भूमि देवों की कर्म भूमि का साक्षात दर्शन कराती है। प्रदेश का शांत वातावरण, गगनचुंबी पर्वतमालाएं, कण-कण में विराजमान ईश्वरीय एहसास मानव जीवन के महत्त्व को दर्शाता है। हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व्हाइट हाउस में अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ मुलाकात में कांगड़ा चाय की महक व कुल्लवी शाल की गरमाहट ट्रंप की पत्नी मेलानिया को हिमाचल की कांगड़ा घाटी के कारीगरों द्वारा बनाया सिल्वर ब्रेसलेट भेंट करके प्रदेश की समृद्ध संस्कृति व विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र के मलाणा कुल्लू का पुनः स्मरण करवाकर प्रदेश को तवज्जो दी गई है। नरेंद्र मोदी का प्रदेश के साथ गहरा संबंध रहा है। वह प्रदेश की हर गली, सड़क, वेशभूषा, संस्कृति व सभ्यता से भली-भांति परिचित हैं। हिमाचल को प्रकृति से इतने उपहार मिले हैं। शायद ही किसी और जगह पर ऐसी प्राकृतिक सुंदरता, शांत वातावरण का समावेश हो। गणतंत्र दिवस पर चंबा झांकी ने प्रदेश की संस्कृति का एहसास करवाया था। चंबा रूमाल व कुल्लवी शाल-टोपी आज वैश्विक ब्रांड बन चुके हैं। जिस प्रदेश में प्राकृतिक समृद्धता की प्रचुरता हो, जिसकी भूमि देवों की कर्मभूमि रही है, उस प्रदेश की संस्कृति व कला की महक विश्वविख्यात होना स्वाभाविक है। वर्ष 1948 से अब तक प्रदेश ने छोटे राज्यों की श्रेणी में विकास के नए आयाम स्थापित किए हैं।
शैक्षणिक हब, औद्योगिक नगरी, पर्यटन व्यवसाय में प्रदेश ने तरक्की की है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो प्रदेश में विद्यमान प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में जिस गति से दोहन होना चाहिए था, कहीं न कहीं सही इस्तेमाल में ढीलापन खलता है। जिस मात्रा में प्रदेश में प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं उसके अनुरूप विकास नहीं हो पाया है। बद्दी औद्योगिक हब में आज 90 प्रतिशत व्यवसायी बाहरी राज्यों से हैं। जल विद्युत में प्रदेश की अपनी क्षमता नाममात्र की है।पर्यटन सुविधाओं और आकर्षण में ही प्रदेश पिछड़ा हुआ है। पड़ोसी राज्य जम्मू-कश्मीर आतंकवाद से ग्रसित होने के कारण भी प्रदेश से ज्यादा पर्यटकों का केंद्र बन जाता है। कला-संस्कृति के क्षेत्र में भी प्रदेश पिछलग्गू श्रेणी में ही है। बाहरी राज्यों के व्यवसायी व शीर्ष नेतृत्व प्रदेश की समृद्ध कला व संस्कृति को परख व निखारकर इसका उपयोग कई दशकों से करते आ रहे हैं। कांगड़ा चाय, ट्राउट मछली, पहाड़ी सेब, नाशपाती वीआईपी खानपान का अंग बनता रहा है। पहाड़ी वेशभूषा, टोपी, जेवरात, नृत्य पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र बनते रहे हैं। यह प्रदेश का दुर्भाग्य ही रहा है कि इतनी समृद्धता होने के बावजूद पहाड़ी वेशभूषा सिर्फ एक फोटोशूट तक ही सीमित रह गई है। कांगड़ा कलम, चंबा रूमाल, कुल्लू शाल-टोपी में इतनी क्षमता तो है कि वे दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्र के मुखिया के भेंट की सामग्री बन गए, लेकिन प्रदेश में इनके विपणन केंद्रों, आधुनिकीकरण व प्रचार-प्रसार की कोई सुध लेने वाला नहीं है। कछुआ चाल प्रवृत्ति में ही उत्पादन व विपणन होता है। आज का युवा इस कला व संस्कृतिक से कोसों दूर चला गया है। युवा वर्ग ब्रांडेड के चक्कर में हजारों रुपए अपने पहनावे के लिए खर्च करता है। प्रदेश में उपलब्ध सामग्री प्रदेश के युवाओं को नहीं भाती है।
प्रदेश सरकार उपलब्ध सामग्री को ब्रांडेड सामग्री के समान गुणवत्तायुक्त उत्पादन करे तथा आधुनिक विपणन प्रणालियों से खरीद- फरोख्त की जाए तो गर्त में जा रही समृद्ध संस्कृति व कला को पुनः संजोया जा सकता है। अधिकतर युवा पीढ़ी हिमाचली कला व संस्कृति को सिर्फ किताबी ज्ञान तक ही सीमित रखती है। इससे पुनरुत्थान नहीं हो पाएगा। आज आवश्यकता है प्राकृतिक सौंदर्य, समृद्ध कला व संस्कृति के ईश्वरीय उपहार को संजोए रखने के लिए युवा वर्ग की सजह सहभागिता अनिवार्य हो। यह तो पूरे देश को ही पता चल गया है कि हिमाचल की कांगड़ा चाय व्हाइट हाउस तक पहुंच गई, पर कांगड़ा प्रशासन इस की सुध लेना ही भूल गया है। चाय बागानों का रकबा सिंकुड़ता जा रहा है। इसी तरह चंबा रूमाल और कुल्लू के शाल और टोपी दूसरी जगह बेशक सुर्खियां बटोर लें, पर अपने ही घर हिमाचल में वे घर की मुर्गी दाल बराबर बने हुए हैं। सरकार के साथ-साथ प्रदेश के लोगों को भी अपने हुनर की पहचान नहीं है। लोग बाहरी उत्पादों पर बेशुमार पैसा उड़ाते हैं, पर अपने प्रदेश में बना सामान उन्हें भाता नहीं है। सरकार के साथ- साथ लोगों का भी यह दायित्व बनता है कि वे अपनी संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं को सहेजने की पहल करें, तभी हिमाचल अपनी समृद्धि बरकरार रख सकता है। नहीं तो हम सब जानते ही हैं कि पश्चिम का प्रभाव कितनी जल्दी कहीं भी असर डालता है और हिमाचल भी कभी-कभी पश्चिम के रंग में रंगा लगता है। हिमाचल देवभूमि, वीरभूमि के साथ-साथ सभ्यभूमि के नाम से भी जाना जाता है और उसकी वजह यही है कि आज भी हिमाचल अपनी संस्कृति की जड़ों से जुड़ा हुआ है। अब इस परंपरा को आगे बढ़ाना युवा पीढ़ी का दायित्व बनता है और इसमें सहयोग सरकार को करना होगा।