ब्यास किनारे
देवदारों तले
बांसुरी बजाती डोलमा
नहीं जानती अभी कि
उस जैसी निश्छल सरल, सीधी
लड़कियां बांसुरी नहीं बजाती
वे तो बेरहम, बीमार, उबाऊ
रस्मों के ढोल पीटती
आ रही हैं सदियों से
उसके बांसुरी वादन से
न पहाड़ हिलेंगे
न मैदान इधर-उधर सरकेंगे
न बदलेंगे मौसम अपना मिज़ाज
उसे तो जीना होगा सिर्फ
एक लड़की होकर
जैसे उसकी दादी मां,
ताउम्र ढोती रही रस्मों की गठरियां
उसे भी ढोनी होंगी
बुहारनी होगी वही पगडंडियां
ताजगी की तलाश शायद हो
उसके हिस्से में
पर यदि उसने बांसुरी छोड़
मशाल थाम ली
भेदभावों की होली जला दी
ललकार भर ली
हौंसला जमा कर लिया
तो फिर कोख में आई
लड़कियां नश्तरों को
गहरे में डूबों देंगी
बांसुरी के बदले सुर,
जलती मशालें और नए सपने
सब मिलकर एक हो जाएं
तो नए बीज बीजे जा सकते हैं।
-हंसराज भारती, सरकाघाट, मंडी
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