पिघलती मोमबत्ती का दर्द

सामाजिक अंधेरों के बीच रहना या मुकाबले में किसी मोमबत्ती का संघर्ष समझना होगा। अपराध के चरित्र में जब सामाजिक ताना बाना टूट रहा हो या हमारी बेडि़यां खुद-ब-खुद कैद बन रही हों, तो ऐसे हालात की सिसकियों  में कोटखाई की कालिख में शामिल होने की वजह हमारे भीतर तक रहेगी। यहां सामाजिक संघर्ष में मोमबत्ती पिघली और प्रगति की कीलों से लहूलुहान स्कूल के रास्ते पर, एक मासूम के साथ दरिंदगी ने हमारे इर्द-गिर्द अनेक अंधेरे बना दिए। इन्हीं अंधेरों के दूसरी तरफ कभी अचानक किसी योग्य पुलिस अधिकारी का सक्षम होना रोशनी बन जाता है, लेकिन व्यवस्था के आंचल में ऐसे आचरण को सहेजना न जाने क्यों मुश्किल होने लगा। अचानक कांगड़ा के पुलिस अधीक्षक संजीव गांधी को बदल देना क्या हमारी व्यवस्था की बेडि़यां हैं या स्थानांतरण के तर्क भी हथियार की तरह वार कर सकते हैं। कम से कम गांधी जैसे पुलिस अधिकारी के बदलने से आशंकाओं की कालिख सरकार से कई सवाल पूछेगी। यह इसलिए क्योंकि कांगड़ा में महकमे की छवि का असर अब आपराधिक तत्त्वों में खौफ का बायस  बन चुका है। ऐसे अनेक कारण हैं जो गांधी की तरफदारी में ये प्रश्न कर रहे हैं कि अचानक स्थानांतरण से पुलिस विभाग को सरकार ने क्या संदेश दिया। बेशक उनके स्थान पर सौम्या साम्बशिवन की तैनाती की वजह रही होगी या उनके व्यक्तित्व को कमतर नहीं आंका जा सकता, फिर भी बदलते परिदृश्य की नजर में तिनका तो जरूर चुभा है। संजीव गांधी ने एक साथ कई मोर्चों पर मोमबत्तियां जलाकर वर्षों के अंधेरे दूर करने की कोशिश की। खास तौर पर ‘उड़ते पंजाब’ से प्रभावित हिमाचल के इस भाग को बेअसर करने, खनन माफिया के खिलाफ ताल ठोंकने तथा युवाओं के सिर पर हेल्मेट की अनिवार्यता जोड़ने की मुहिम को क्यों स्थानांतरण से कंकाल बनाया जा रहा है, यह समझ से बाहर है। जाहिर तौर पर शिमला के अपराध में हम कानून व्यवस्था की मोमबत्ती बुझने की सजा पा चुके हैं, जबकि कांगड़ा में अपराध के खिलाफ जल रहे दीये को चोट पहुंचाकर क्या साबित कर रहे हैं। जो अपराध कोटखाई में हुआ, उसके नथुनों में नशे की खेप भरी हुई है। अपराधियों की आकृति में हम अपने आसपास के बिगड़ैल माहौल में पल रही युवा पीढ़ी को देख सकते हैं। वहां ‘उड़ता हिमाचल’ और पारिवारिक समृद्धि में बिगड़ते युवाओं के शौक देख सकते हैं। एक बच्ची के साथ हुए सलूक  का निर्दयी चित्रण, दरअसल समाज में आ रही विकृतियों का जनाजा भी है। जाहिर है अपराधी छोकरे कल तक धन के बल पर जो हैसियत रखते होंगे, उनके खिलाफ गांधी जैसी मुहिम होनी चाहिए। कांगड़ा में परिस्थितियां अगर आज भिन्न दिखाई दे रही हैं, तो पुलिस महकमे ने सामाजिक परिदृश्य में भी सुधारवादी रुख अख्तियार किया। कांगड़ा के एसपी ने युवाओं के आचरण में अपने फर्ज की दस्तक दी और एक लंबी प्रक्रिया को पुलिस महकमे के दायित्व में आदत बना दिया। वाहनों पर घूमते युवाओं पर पहली नजर अगर हेल्मेट ढूंढने लगी, तो ‘नो हेल्मेट-नो पेट्रोल’ की नीति कारगर सिद्ध हुई। नशे की अंधेरी गलियों में पुलिस की मोमबत्ती ने, एक बड़े माफिया का चेहरा उजागर किया। इसलिए कोटखाई की गुडि़या की रूह भी तड़प कर जो कह रही है, उसे समझना होगा। अपराध के खिलाफ जनता का गुस्सा अवश्य ही अपराधियों को दंड दिलाएगा, लेकिन समाज के भीतर समा रही दरिंदगी के खिलाफ युद्ध का डंका बजाना होगा। नशे के आदी युवाओं के खिलाफ गांधी सरीखा पुलिस अधिकारी हर जगह मौजूद होना चाहिए। विडंबना यह कि एक ओर अपराध के वीभत्स दृश्य में पूरा शिमला स्तब्ध है, तो दूसरी ओर कांगड़ा को अपराध मुक्त करने वाले नायक को स्थानांतरण की सजा मिल रही है। शिमला में समाज की मोमबत्ती जलकर दरिंदों को ढूंढ रही है, तो कांगड़ा में अपराध के खिलाफ खड़ी हुई पुलिस की मोमबत्ती को जलने से कौन रोक रहा है। अगर सरकार कोटखाई के दरिंदों को खोजकर ईमानदार साबित होना चाहती है, तो कांगड़ा के प्रभावशाली पुलिस अधीक्षक को नाहक बदलकर क्यों अपराध करना चाहती है। नशे से मुक्त हुए गांव-शहर व दोपहिया वाहन सवारों के रूप में जिनकी औलाद सुरक्षित है, उनसे पूछें कि गांधी कांगड़ा में रहें या जाएं।

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