पुस्तक समीक्षा : अंधेरे के पार रोशनी की झलक दिखाती कहानियां

पुस्तक : मैं जीना सिखाता हूं

लेखक : अजय पाराशर

मूल्य : 200 रुपए

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन,

एफ-77, सेक्टर-9, इंडस्ट्रियल एरिया, जयपुर

एड्स पीडि़तों के अनुभवों के संसार में झांकना और उनके जीवन के अंधेरे कोनों की टोह लेना इतना आसान नहीं है। बाह्य स्थितियों का आकलन तब तक संभव नहीं, जब तक मन के आईने में, अपने ही विवेक की सूरत का रेशा-रेशा उधेड़ कर जांच-पड़ताल न कर ली जाए। युवा कवि, कहानीकार, लेखक, चिंतक अजय पाराशर ने अपने पहले कहानी संग्रह ‘मैं जीना सिखाता हूं’ की कहानियों में मुख्य पात्रों के जीवन के किसी दंश, कुंठा व घुटन को बहुत ही सहजता और विश्वसनीय ढंग से उद्घाटित किया है। बेखौफ होकर कहानी के तत्वों को खंगाला और नई परिभाषाओं को गढ़ा है। अपने शिल्प की ताजगी, कथावस्तु, देशकाल, भाषा शैली, कथोपकथन, पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं के कारण यह कहानी संग्रह शुरू से अंत तक पाठक को बांधे रखता है। अधिकतर कहानियों का तारतम्य ऐसा है कि वह एक कौतूहल की शृंखला में बंधी हुई आगे बढ़ती चली जाती हैं। एड्स पीडि़तों के अनुभवों पर आधारित इन सभी कहानियों में कहानीकार ने पात्रों के जीवन की सूक्ष्मता से पड़ताल की है। कहानियों की विषय वस्तु और कथावस्तु संक्षिप्त होने के साथ-साथ अत्यंत भावपूर्ण, स्वतः पूर्ण एवं सुगठित है। कहानी सिर्फ यथार्थ का उत्खनन मात्र नहीं, यथार्थ का उत्खनन करने की प्रक्रिया में यथार्थ के साथ अपने संबंध को पहचानने की दृष्टि अन्वेषित व परिमार्जित करती चलती है। कुछ कहानियों में मुक्ति की छटपटाहट भी है। मुक्ति अपनी वैचारिक जड़ताओं से भी, और अमूर्त मनोग्रंथियों से भी, मुक्ति समय से भी और भौतिक लिप्साओं से भी। कहानियों में बेशक यथार्थ जगत के बरक्स रचा गया एक समानांतर यथार्थ लोक है लेकिन इसकी गति और दिशा यथार्थ जगत से उलटी है। दरअसल यथार्थ जगत के गुरुत्वाकर्षण को तोड़कर पागलपन, चमत्कार या संभाव्यता को मूल्य बना कर रखी जाने वाली कहानियों में अपने समय की विभीषिकाओं को अधिक सघनता से उजागर करने की क्षमता होती है। लेकिन तभी, जब लेखक सृजन को अपना पैरामीटर बनाए, अभिव्यक्ति को नहीं। हाशिए के आखिरी छोर पर जीते मनुष्य की चिंताओं और सपनों को केंद्र में लाकर कहानी का ताना-बाना बुनना आसान काम नहीं है लेकिन कथाकार ने इस चुनौती को स्वीकार किया है। अजय पाराशर की रचना प्रक्रिया में एड्स पीडि़तों के जीवन का अध्ययन, विश्लेषण और फिर अपने समूचे व्यक्तित्व को अंतर्दृष्टि में घुला-मिलाकर विश्लेषणगत निष्कर्षों और व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुरूप जीवन का एक नया परिवर्धित संस्करण रच देने की व्यग्रता साफ दिखती है। अजय पाराशर के इस कहानी संग्रह में कुल 16 कहानियां हैं। मैं जीना सिखाता हूं कहानी इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानियों में से एक है। इसे संग्रह की प्रतिनिधि कहानी भी कहा जा सकता है। इस कहानी का मुख्य पात्र अपने जीवन के संघर्षों को जीते हुए, अपनी जिजीविषा को कायम रखते हुए, अपने परिवार की खुशियों पर अपने को सहर्ष और स्वेच्छा से न्योछावर करता रहता है। ठीक उसी तरह- जैसे नहीं बचाता पेड़ अपने लिए आखिरी फल भी।

रिसता है घाव नासूर बनकर शीर्षक कहानी शन्नो के बालपन से लेकर तरुणाई और फिर दुल्हन बनने से लेकर पतझड़ के पत्तों की तरह झड़कर इस दुनिया से रुखसत हो जाने के कथानक को जिस तरह कथाकार ने बड़ी महीनता से बुना और संवेदनाओं में ढाला है, उससे कहानी के अंत तक आते-आते पाठक अपने भीतर के सैलाब को रोक पाने में बेबस हो जाता है। इस कहानी में बिंबों और काव्य कला की आवाजाही महसूस होती है। बिंब अपना स्वरूप लेते दिखते हैं। अन्य कहानियां भी काफी रोचक हैं। कुल मिलाकर यह कहानियां मात्र कल्पना की उड़ान कतई नहीं है। इनमें समाज का सच है। वह गहरी अभिव्यक्ति है जिसे गहन अनुभव और समस्या से द्रवित हृदय ने अपनी कलम के धागे से शब्दों के मोतियों में पिरोया है। कहानियों में व्यक्ति, समाज, परिवेश तथा स्थितियों के भीतर जीवन के विभिन्न स्तरों, जटिलताओं, विडंबनाओं और अंतर्विरोधों के साथ मानवीय आकांक्षाओं की खोज का प्रयत्न भी किया गया है। इन कहानियों के जरिए कहानीकार अजय पाराशर यह बताने में कामयाब रहे हैं कि अंधेरे का पार रोशनी भी है और आत्मग्लानि के संसार से बाहर आकर जिंदगी की तरंगों को अपनी बांहों में भरने की जिजीविषा को जिंदा रखा जा सकता है।

-गुरमीत बेदी, साहित्यकार

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