माता चिंतपूर्णी

चिंतपूर्णी धाम हिमाचल प्रदेश में स्थित है। यह स्थान हिंदुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलो में से एक है। यह 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहां पर माता सती के चरण गिरे थे। इस स्थान पर प्रकृति का सुंदर नजारा देखने को मिलता है। यहां पर आकर माता के भक्तों को आध्यात्मिक आंनद की प्राप्ति होती है। माता चिंतपूर्णी धाम में 24 से 31 जुलाई तक श्रावण अष्टमी का पावन मेला पूरे हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। जिसमें देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं। श्रावण की संक्रांति वाले दिन से ही मां के भक्तजनों की भारी भीड़ उमड़ने लगती है और हजारों श्रद्धालु मां के दरबार में नतमस्तक होते हैं। भारी बारिश में भी भक्तजन अपनी पूरी आस्था दिखाते हुए कतारों में खड़े होकर मां के दरबार तक पहुंचने के लिए अपनी बारी का इंतजार करते हैं। मां के भक्तजन ढोल की थाप पर भंगड़ा डालते हुए हाथों में मां का झंडा लिए हुए दरबार की तरफ  बढे़ चल जाते हैं। कई श्रद्धालु भरवाईं से दंडवत करते हुए मां के दर्शन करने के लिए आते हैं।  मां के दरबार पर माथा टेकने के बाद श्रद्धालु सैकड़ों साल पुराने लगे वृक्ष पर अपनी मनोकामना पूरी करने को लेकर मौली बांधते हैं। मंदिर को बड़ी ही खूबसूरती से सजाया गया है।

मेले की तैयारियों में जुटा प्रशासनः

श्रावण अष्टमी के पावन मेले को लेकर जिला ऊना प्रशासन तैयारियों में जुट गया है। मेले में देश-विदेश से आने वाले लाखों श्रद्धालुओं की सुरक्षा को लेकर भी बड़ी संख्या में हिमाचल पुलिस के जवान नियुक्त हैं, जो कि अलग-अलग स्थानों पर तैनात रहेंगे। श्रद्धालुओं की मां चिंतपूर्णी के प्रति आस्था को देखते हुए उन्हें जल्द मां के दर्शन करवाने के लिए प्रशासन द्वारा विशेष प्रबंध किए जा रहे हैं। भक्तों की चिंताएं दूर करके उनके दुखों को दूर करने वाली मान्यता प्राप्त देवी मां के इस प्रसिद्ध धाम का संबंध एक पौराणिक कथा से भी जोड़ा जाता है। देव असुर संग्राम में राक्षसराज महाबली शुंभ और निशुंभ नामक अजय असुरों ने आदिशक्ति मां के चंडिका तथा काली रूपी स्वरूपों का सामना करते हुए अपने चंड-मुंड नामक सैनापतियों के मारे जाने के बाद रक्तबीज नामक मायावी तथा तपस्वी राक्षस को अपनी सैना में शामिल कर लिया। इस राक्षस को उसकी तपस्या से यह  वरदान प्राप्त था कि युद्ध में उसके रक्त के जितने कतरे नीचे गिरेंगे, उनमें से उतने ही राक्षस पैदा हो जाएंगे। युद्ध क्षेत्र में मां जगदंबा ने इस परिस्थिति से निपटने के लिए अपनी दो योगनियों जया और विजया को यह आदेश दिया कि वह इस असुर का रक्त जमीन पर गिरने से पहले ही सोंख जाएं, ताकि असुरों की छलमाया का नाश हो सके। तत्पश्चात आदिशक्ति मां ने अपने नवशक्ति रूपों में अदम्य जोरदार संग्राम किया और जया और विजया को उस राक्षस का रक्त तेजी से सोंखना पड़ा। इसके बाद जया और विजया अपनी सुध-बुध खो बैठीं और रक्तबीज राक्षस के पूरी तरह मिट जाने के बाद भी अपनी रक्त पीपासा को काबू न कर सकीं और मां से ओर रक्त मांगने लगीं। रक्त न मिलने पर विचलित हुई जया और विजया ने अपनी बेचैनी के बारे में मां से दोहराकर कहा, तो ममतामयी मां भगवती अपनी दुलारियों की त्रास न सह सकी और महाशक्ति ने त्याग की वह मिसाल कायम कर दी जो शायद कहीं और ढूंढी न जा सके। भगवती मां ने स्वयं अपनी गर्दन अपने धड़ से काट डाली और उन में से दो रक्त धाराएं बह निकली जो उन दोनों योगनियों के मुख में स्वयं जा गिरी। साथ ही प्रभु माया से एक तीसरी अमृतधारा बह निकली जो मां के कांतिमुख में प्रवाह करने लगी। तभी से इस देवी को छिन्नमस्तिका मां भी कहा जाता है।  मंदिर के मुख्य द्वार पर प्रवेश करते ही सीधे हाथ पर आपको एक पत्थर दिखाई देगा। यह पत्थर माईदास का है। यही वह स्थान है, जहां पर माता ने भक्त माईदास को दर्शन दिए थे। भवन के मध्य में माता की गोल आकार की पिंडी है। जिसके दर्शन भक्त कतारबद्ध होकर करते हैं। श्रद्धालु मंदिर की परिक्रमा करते हैं। माता के भक्त मंदिर के अंदर निरंतर भजन कीर्तन करते रहते हैं। इन भजनो को सुनकर मंदिर में आने वाले भक्तो को दिव्य आंनद की प्राप्ति होती है और कुछ क्षणों के लिए वह सब कुछ भूल जाते हैं।

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